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ध्यान-शास्त्र
'उन दोनो ध्येय और ध्याताका जो यह एकीकरण है वह समरसीभाव, माना गया है, यही एकीकरण समाधिरूप ध्यान है, जो इन दोनों लोकके फलको प्रदान करनेवाला है।'
व्याख्या-यह भावध्येय, जिसमे ध्याता अपना पृथक अस्तित्व भुला कर ध्येयमें ऐसा लीन हो जाता है कि तद्रूप-क्रिया करने लगता है, समरसीभाव कहलाता है । इसोका नाम वह समाधि है जिससे इस लोकसम्बन्धी तथा परलोकसम्बन्धी दोनो प्रकारके फलोकी प्राप्ति होती है।
द्विविध-ध्येयके कथनका उपसहार किमत्र बहुनोक्तन ज्ञात्वा श्रद्धाय तत्त्वतः। ध्येयं समस्तमप्येतन्माध्यस्थ्यं तत्र विभ्रता ॥१३८॥
'इस विषयमे बहुत कहनेसे क्या? इस समस्त ध्येयका स्वरूप वस्तुत जानकर तथा श्रद्धानकर उसमे मध्यस्थता-वीतरागता धारण करनेवालेको उसे अपने ध्यानका विषय बनाना चाहिये।'
व्याख्या-यहाँ प्रकारान्तरसे निर्दिष्ट हुए द्विविधध्येयके कथनका उपसहार करते हुए साररूपमे इतना ही कहा गया है कि वह सब वस्तु इस ध्येयकी कोटिमें स्थित है जिसे यथार्थरूपसे जानकर और श्रद्धान करके उसमे राग-द्वेषादिके अभावरूप मध्यस्थ-भावको धारण किया गया हो। इस कथन-द्वारा प्रस्तुत ध्येयके मौलिक सिद्धान्तका निरूपण किया गया है। इस सिद्धान्तके अनुसार कोई भी बाह्य वस्तु ध्यानका विषय बनाई जा सकती है वशर्ते कि उसके यथार्थ स्वरूपके परिज्ञान और श्रद्धानके साथ काम-क्रोध-लोभादिकी निवृत्तिरूप समताभाव, उपेक्षाभाव या वीतरागभाव जुडा हो। इसी आशयको लिये हुए कुछ पुरातन आचार्योंके निम्न वाक्य भी ध्यानमे लेने योग्य हैं.