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तत्त्वानुशासन एक कृत्रिम और दूसरा अकृत्रिम । शिल्पियोके द्वारा रचित कृत्रिम जिन-विम्ब जगह-जगह उपलब्ध है, जिनमे बाहुबली तथा महावीरजी जैसे कुछ प्रतिविम्ब सातिशय कोटिमें स्थित हैं, अकृत्रिम जिनविम्ब कहा-कहा पाये जाते है और उनका क्या कुछ स्वरूप है, यह जैनागममे जिस प्रकार से वर्णित है उसी प्रकारसे उनको अपने ध्यानका विषय बनाना चाहिये । यह सव स्थापनाध्येयका विवक्षित-रूप है।
द्रव्य-ध्येय यथैकमेकदा द्रव्यमुत्पित्सु स्थास्तु नश्वरम् । तथैव सर्वदा सर्वमिति तत्त्व' विचिन्तयेत् ॥११०॥ 'जिस प्रकार एक द्रव्य एक समयमे उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यरूप होता है उसी प्रकार सर्वद्रव्य सदा फाल उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यरूप होते रहते हैं, इस तत्त्वको ध्याता चिन्तन करे।'
व्याख्या-द्रव्यध्येयका निरूपण करते हुए, यहाँ सबसे पहले द्रव्य-सामान्यको ध्यानका विषय बनानेको प्रेरणा की गई है। द्रव्यका सामान्य स्वरूप उत्पाद-व्यय-प्रीव्यरूप है, वह जैसे एक द्रव्यका स्वरूप है वैसे हो सब द्रव्योका स्वरूप है और जैसे वह एक समयवर्ती है वैसे ही सर्वसमयवर्ती है अर्थात् प्रत्येक द्रव्यमे उक्त सामान्य स्वरूप प्रतिक्षण रहता है और उसीसे द्रव्यका द्रव्यत्व बना रहता है । इस तत्त्वको ध्यानका विषय बनाना चाहिये ।
तत्त्वार्थसूत्रके 'सद्रव्यलक्षणम्' तथा 'उत्पाद-व्यय-ध्रौव्ययुक्त सत्' इन दो सूत्रोमे जो वात द्रव्यके स्वरूप-विपयमे कहो गई है और जो स्वामी समन्तभद्रके युक्त्यनुशासनमे 'प्रतिक्षण स्थित्युदय-व्ययात्म-तत्त्वव्यवस्थं सदिहाथरूपम्' इस रूपसे व्यवस्थित
१.सि जु तथ्य ।
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