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तत्त्वानुशासन साकारं च निराकारममूर्तमजराऽमरम् । जिन-विम्बमिव स्वच्छ-स्फटिक-प्रतिविम्बितम् ॥१२१॥ लोकाऽन-शिखराऽऽरूढमुढ-सुखसम्पदम् । सिद्धात्मान निरावाधं ध्यायेन्नित-कल्मषम् ॥१२२॥
जो अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान और सम्यक्त्वादि गुणमय है, स्वगृहीत और पश्चात् परित्यक्त ऐसे (चरम) शरीरके आकारका धारक है, साकार और निराकार दोनो रूप है, अमूर्त है, अजर है, अमर है, स्वच्छ-स्फटिकमे प्रतिबिम्बित जिनविम्बके समान है, लोकके अग्रशिखर पर आरूढ है, सुख सम्पदासे परिपूर्ण है, वाधाओसे रहित और कर्मकलंकसे विमुक्त है उस सिद्धात्माको ध्याता ध्यावे-अपने ध्यानका विषय बनावे। ___ व्याख्या-यहां सिद्धात्माके स्वरूपका निरूपण करते हुए उसके ध्यानकी प्रेरणा की गई है अथवा यो कहिये कि सिद्धात्माको निर्दिष्ट-रूपमे ध्यानेको व्यवस्था की गई है। इस स्वरूप-निर्देशमे 'आदि' शब्दके द्वारा सिद्धोके प्रसिद्ध अष्टगुणोमेसे, जो आठ कर्मोके क्षयसे प्रादुर्भूत होते हैं, शेष पाँच गुणो-अनन्तवीर्य, सूक्ष्मत्व, अवगाहना, अगुरुलघु और अव्यावाधकी सूचना की गई है। सिद्धोको साकार और निराकार दोनो रूपमे जो प्रतिपादित किया है उसका आशय इतना हो है कि जिस पर्यायसे उन्हे मुक्तिकी प्राप्ति हुई है उसमे जो शरीर उन्हें प्राप्त था और जिसे त्याग करके वे मुक्तिको प्राप्त हुए है उस शरीराकार आत्माके प्रदेश बने रहते हैं इसलिये वे साकार हैं; परन्तु वह आकार त्यक्तशरीरसदृश पौद्गलिक नहीं होता “और न इन्द्रियोंके द्वारा ग्रहण किया जाता है इसलिये निराकार है। इन दोनो बातोको स्पष्ट करनेके लिये जिनबिम्ब