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तत्त्वानुशासन "जिसके द्वारा ध्यान किया जाता है वह ध्यान है अथवा जो ध्यान करता है वही ध्यान है, जिसमें ध्यान किया जाता है वह ध्यान है; अथवा ध्यातिका ध्येय वस्तुमे परमस्थिर-बुद्धिकानाम भी ध्यान है।'
व्याख्या-यहाँ ध्यान शब्दकी निरुक्ति-द्वारा उसे करण, कर्ता, अधिकरण और भाव-साधनरूपमे चार अर्थोका द्योतक वतलाया गया है। अगले पद्योमे इन सवका स्पष्टीकरण किया गया है।
स्थिर-मन और तात्त्विक-श्रुतज्ञानको ध्यान सज्ञा श्रुतज्ञानेन मनसा यतो ध्यायन्ति योगिनः। ततः स्थिर मनो ध्यानं श्रुतज्ञानं च तात्त्विकम्॥६॥
'कि योगीजन श्र तज्ञानरूप परिणत मनके द्वारा ध्यान करते हैं इसलिये स्थिर मनका नाम ध्यान और स्थिर तात्त्विक (यथार्थ) श्रुतज्ञानका नाम भी ध्यान है।'
व्याख्या-इस पद्यमे करण-साधन-निरुक्तिकी दृष्टि से स्थिर. मन और स्थिर-तात्त्विक-श्रुतज्ञानको ध्यान बतलाया गया है, क्योंकि इनके द्वारा योगीजन ध्यान करते हैं, यह कथन निश्चयनयकी दृष्टिसे है।
आत्मा ज्ञान और ज्ञान आत्मा ज्ञानादर्थान्तराऽप्राप्तादात्मा ज्ञानं न चान्यत. ।
एक पूर्वापरोभूतं ज्ञानमात्मेति कीर्तितम् ॥६॥ 'ज्ञानसे प्रात्मा अर्थान्तरको-भिन्नता अथवा पृथक्-पदार्थत्वको प्राप्त नहीं है। किन्तु अन्य पदार्थोंसे वह अर्थान्तरको प्राप्त न हो ऐसा नहीं-उनसे अर्थान्तरत्व अथवा भिन्नताको ही प्राप्त है । ऐसी स्थितिमें 'जो आत्मा वह ज्ञान' और 'जो ज्ञान वह
१. ध्यायत्यर्थाननेनेति ध्यान करणसाधनम् । (आर्ष २१-१३) २. मु ज्ञानादर्थान्तरादात्मा तस्माज् ।