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ध्यान - शास्त्र
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ध्यान कहा गया है; क्योकि निश्चयनयसे ध्यान ध्यातासे कोई जुदी वस्तु नही है - निश्चयनय की दृष्टिमे ध्यान, ध्याता, ध्येय और ध्यान साधनादिका कोई विकल्प ही नही होता ।
ध्यानके आधार और विषयको भी ध्यान कहनेका हेतु ध्यातरि ध्यायते ध्येय यस्मान्निश्चयमाश्रितैः । तस्मादिदमपि ध्यान कर्माधिकररण-द्वयम् ॥ ७१ ॥
'निश्चयनयका श्राश्रय लेनेवालोके द्वारा चूँकि ध्येयको ध्यातामे ध्याया जाता है इसलिये यह कर्म तथा श्रधिकरण दोनो रूप भी ध्यान है । '
व्याख्या - यहाँ कर्मसाधन और अधिकरणसाधन-निरुक्तिकी दृष्टिसे ध्येय और ध्येयके आधारको भी ध्यान कहा गया है, क्योकि निश्चयनयसे ये दोनो भी ध्यानसे भिन्न नही है । घ्यातिका लक्षण
इष्टे ध्येये स्थिरा बुद्धिर्श स्यात्सन्तान वर्तिनी । ज्ञानान्तराऽपरामृष्टा सा ध्यातिर्ध्यानमीरिता ॥७२॥
'सन्तान - क्रमसे चली आई जो बुद्धि अपने इष्ट ध्येयमे स्थिर हुई दूसरे ज्ञानका स्पर्श नहीं करती, वह 'ध्याति' रूप ध्यान कही गई है।'
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व्याख्या - यहाँ ध्यातिके स्वरूपका निर्देश करते हुए उसे भावसाधनकी दृष्टिसे ध्यान कहा गया है । निश्चयनयकी दृष्टिसे शुद्ध स्वात्मा ही ध्येय है । प्रवाहरूपसे शुद्ध स्वात्मामे वर्तनेवाली बुद्धि जब शुद्ध-स्वात्मामे इतनी अधिक स्थिर हो जाती है कि शुद्धात्मासे
१ व्येय प्रति अव्यापृतस्य भावमात्रेणाभिधाने घ्यातिर्ध्यानमिति भावसाधनो ध्यान-शब्द ।' (तत्त्वा० वा० ६ - २७ ) भावमात्राभिधित्साया व्यातिर्वा ध्यानमिष्यते । ( २१-१४)