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ध्यान-शास्त्र
७७ प्रशम, स्थैर्य (धैर्य), असमूढता, अगर्वता, आस्तिक्य, अनुकम्पा ये सात सम्यक्त्व (सम्यग्दर्शन)की भावनाएँ है' । ईर्यादि पाच समितियाँ, मन-वचन-कायके निग्रहरूप तीन गुप्तियाँ और परीषह-सहिष्णुता, ये चारित्रकी भावनाएं हैं । विषयोमे अनासक्तता, कायतत्त्वका अनुचिन्तन और जगतके स्वभावका विवेचन, ये वैराग्यको स्थिर करनेवाली भावनाएँ है । इसी प्रकार अहिंसादिवतोकी जो तत्त्वार्थसूत्रादि-वर्णित २५ भावनाएं हैं उनका स्वरूप-चिन्तन भी यहाँ ग्रहण किये जानेके योग्य है। साथ ही, दर्शनविशुद्धयादि षोडशकारण भावनाओको भी लिया जा सकता है।
स्वाध्यायका स्वरूप स्वाध्याय परमस्तावज्जपः पंचनमस्कृते । पठनं वा जिनेन्द्रोक्त-शास्त्रस्यैकाग्र-चेतसा॥८॥
'पचनमस्कृतिरूप नमोकारमंत्रका जो चित्तकी एकाग्रताके साथ जपना है वह परम स्वाध्याय है अथवा जिनेन्द्र-कथित शास्त्रका जो एकाग्न चित्तसे पढना है वह स्वाध्याय है।'
व्याख्या-यहाँ स्वाध्यायमे जिस विषयका ग्रहण है उसको स्पष्ट किया गया है और उसके दो भेद किये गये हैं-एक जप और दूसरा पठन । जप पचनमस्कारका, जो कि 'गमो अरहताण १ सवेग प्रशमस्थैर्यमसमूढत्वमस्मया ।
आस्तिक्यमनुकम्पेति ज्ञेया सम्यक्त्व-भावना ॥ आर्प २१-६७ ॥
२ ईर्यादिविषया यत्ना मनोवाक्-काय-गुप्तयः । - - परीपहसहिष्णुत्वमिति चारित्रभावना | आर्ष २१-९८॥
३ विपयेष्वनभिष्वग कायतत्त्वाऽनुचिन्तनम् । ___ जगत्स्वभाव चिन्त्येति वैराग्य-स्थर्य-भावना ॥आर्ष २१-६६। ' ४, मु मे जय । ५. सि जु चिन्तन ।