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तत्त्वानुसामन
पर्यायवान् तत्त्वार्थसूत्रसम्मत है उसीको द्रव्यध्येयके रूपमे यहाँ ग्रहण किया गया है और भावध्येयमे गुण तथा पर्याय दोनोको लिया गया है।
नामध्येयका निरूपण आदी मध्येऽवसाने यहाडमय व्याप्य तिष्ठति। हृदि ज्योतिष्मदुद्गच्छन्नामध्येय तदर्हताम् ॥१०१॥ 'अपने आदि, मध्य और अन्तमे (प्रयुक्त म-र-ह अक्षरो-द्वारा) जो वाड़मयको-वाणी वा वर्णमालाको व्याप्त होकर तिष्ठता है वह अर्हन्तोका वाचक 'अहं' पद है, जो कि हृदयमे ऊँची उठती हुई ज्योतिके रूपमे नामध्येय है।'
व्याख्या-यहां अर्हन्तोके वाचक 'मह' मत्रको नामध्येय बतलाया गया है, जिसके आदिमे वाड्मय अथवा वर्णमालाका आदि अक्षर 'अ',मध्यमे मध्याक्षर 'र' और अन्तमे अन्ताक्षर 'ह' है और इस तरह जो सारे वाङ्मयको अपनेमे व्याप्त कर 'अक्षरब्रह्म'के रूपमे स्थित हुआ परब्रह्म अर्हत्परमेष्ठिका वाचक है। इसे अन्यत्र 'सिद्धचक्रका सद्वीज' भी बतलाया गया है, जैसा कि निम्न प्रसिद्ध श्लोकसे प्रकट है -
अहमित्यक्षरब्रह्म वाचक परमेष्ठिन । सिद्धचक्रस्य सद्बोज सर्वत प्रणमाम्यहम् ।।
इस अक्षरब्रह्मको, जिसे शब्दब्रह्म भी कहते हैं, ऊंची उठती हुई ज्योतिके रूपमे ध्यानका विपय बनाना चाहिये । इसके ध्यानका स्थान हृदय-स्थल है।
सिद्धचनका बीज होनेसे श्रीजिनसेनाचार्य ने इसे परमवीज लिखा है -
१ सि जु तदर्हत ।