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ध्यान-शास्त्र
वन्धहेतुओमे चक्की और मन्त्री बन्ध-हेतुषु सर्वेषु सोहश्चक्रीति' कीर्तितः । मिथ्याज्ञानं तु तस्यैव सचिवत्वमशिश्रिय ॥१२॥ 'बन्धके सम्पूर्ण हेतुप्रोमे मोह चक्रवर्ती (राजा) कहा गया है और मिथ्याज्ञान इसीके मन्त्रित्वको आश्रय किये हुए हैमोह राजाका आश्रित मन्त्री है।
व्याख्या-यहां मिथ्यादर्शनरूप मोहको चक्रवर्ती बतलाकर बन्धके हेतुओमे उसकी सर्वोपरि प्रधानताका निर्देश किया गया है और वह ठीक ही है, क्योकि दर्शनमोह दृष्टिविकारको उत्पन्न करता है और यह दृष्टिविकार ही ज्ञानको मिथ्याज्ञान और चारित्रको मिथ्याचारित्र बनाता है। मोहाश्रित होनेसे ज्ञान स्वतन्त्रतापूर्वक मत्रीपदका कोई काम करने अथवा मोहराजाको उसकी कुप्रवृत्तियोके विरुद्ध-प्रतिकूल अच्छी भली सलाह देनेमे समर्थ नहीं होता। सदा उसके अनुकूल ही बना रहता है और इसीसे मिथ्याज्ञान नाम पाता है। मिथ्याज्ञान मोह-चक्रीका ही मत्री है-अन्यका नही, यह बात 'तस्य' पदके साथ 'एव' शब्दके प्रयोग-द्वारा सूचित की गई है।
मोहचकीके सेनापति ममकार-अहकार ममाऽहंकार-नामानौ सेनान्यौ तौ च तत्सुतौ । यदायत्त सुदुर्भेद मोह-व्यूह प्रवर्तते ॥१३॥ 'उस मोहके जो दो पुत्र 'ममकार' और 'अहकार' नामके हैं वे दोनो उस मोहके सेनानायक हैं, जिनके अधीन मोहव्यह
१. मु मोहश्च प्राक् प्रकीर्तित । २ मुशिश्रियन् ।