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ध्यान-शास्त्र वह निश्चयनयसे मुक्ति हेतुरूप होता है-स्वय मोक्षमार्गरूप परिणमता है।'
व्याख्या-यहाँ निश्चयनयसे उस साधुको मोक्षमार्गरूप बतलाया है जो इन सम्यग्दर्शनादिसे युक्त हुआ ग्रहण और त्यागकी प्रवृत्तिको छोड़ देता है। जबतक आत्मासे भिन्न परपदार्थोंमे ग्रहण-त्यागकी बुद्धि तथा प्रवृत्ति बनी रहती है तबतक आत्मामे सम्यक्-स्थितिरूप मोक्षकी साधना नही बनती। वस्तुत सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र (रत्नत्रय)रूप परिणत हुआ अपना आत्मा ही मोक्षमार्ग है।
यो मध्यस्थः पश्यति जानात्यात्मानमात्मनात्मन्याऽऽत्मा। . हगवगमचरणरूपः स निश्चयान्मुक्तिहेतुरिति हि
जिनोक्ति ॥३२॥ 'जो सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रस्वरूप आत्मा मध्यस्थ भावको प्राप्त हुआ आत्माको आत्माके द्वारा आत्मामे देखता और जानता है वह निश्चयनयसे (स्वयं) मुक्तिका हेतु है, ऐसी सर्वज्ञजिनकी उक्ति-वाणी है।'
व्याख्या-वास्तवमे सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप परिणत वह आत्मा ही निश्चयनयकी दृष्टिसे मोक्षमार्ग है जो रागद्वेषसे रहित हुआ अपने आत्माको अपने आत्माके द्वारा अपने आत्मामे देखता और जानता है। क्योकि निश्चयनय अभिन्नकर्तृ-कर्मादिविषयक होता है (२९)-निश्चयनयमे जानने और देखनेकी
१ सम्मद्दसण णाण चरण मोक्खस्स कारण जाणे।
ववहारा,णिच्छयदो तत्तियमइओ रिणो अप्पा ॥ (द्रव्यस० ३६) २ मुरिति जिनोक्ति । सि जु हे जिनोक्ति