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ध्यान-शास्त्र
इन दोनोके बिना मोक्ष बन ही नहीं सकता। सवर आस्रवके निरोधको और निर्जरा सचित कर्मो के एकदेशत क्षयको कहते हैं । जबतक ये दोनो सम्पन्न नहीं होते तब तक कर्मोसे पूर्णत. छुटकारारूप मोक्ष कैसा? अत मोक्ष और मोक्षके कारण सवर तथा निर्जरा ये तीनो तत्त्व उपादेय-नत्त्वकी कोटिमे स्थित हैं। इन्हीके निमित्तसे आत्मामे उपादेय-सुखका आविर्भाव होता है।
यहाँ सुखका 'उपादेय' विशेषण और 'आविर्भविष्यति' क्रियापद अपना खास महत्त्व रखते हैं। 'उपादेय' विशेषणके द्वारा उस मोक्षसुखको सूचना करते हुए जिसे ग्रन्थके तृतीय पद्यमे 'शिवशम' शब्दके द्वारा उल्लेखित किया है, उसे ही आदरणीय तथा ग्रहणके योग्य बताया है और इससे दूसरा सासारिक विषयसौख्य, जिसका स्वरूप पिछले पद्यके फुटनोटमे उद्धृत दो पद्योसे स्पष्ट है, अनुपादेय, हेय अथवा उपेक्षणीय ठहरता है। प्रस्तुत मोक्षसुख घातिया कर्मों के क्षयसे प्रादुर्भूत, स्वात्माधीन, निराबाध, अतीन्द्रिय और अविनाशी होता है, इसीलिये उपादेय है, जबकि सासारिक सुख वैसा न होकर पराधीन, विनाशशील, दुःखसे मिश्रित, रागका वर्धक, तृष्णा-सन्तापका कारण, मोह-द्रोह-क्रोधमान-माया-लोभका जनक और दुखके कारणीभूत बन्धका हेतु होता है, और इसीलिये अनुपादेय है ।
जिस मोक्ष-सुखको यहाँ उपादेय बतलाया है, वह आत्मामे कोई नवीन उत्पन्न नहीं होता और न कही बाहरसे आकर उसे
१ आस्रवनिरोध. सवर । (त० सू०६-१)।
एकदेश-कर्म-सक्षय-लक्षणा निर्जरा । (सर्वार्थ० १.४) २ तत्त्वानु० २४२ । ३ तत्त्वानु० २४३,२४४