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तत्त्वानुशासन
प्राप्त होता है । वह वास्तवमे आत्माका निजगुण और स्वभाव है, जो कर्म-पटलोसे आच्छादित रहता है । सवर, निर्जरा और मोक्ष तत्त्वोके द्वारा कर्म-पटलोके विनाशसे वह प्रादुर्भूत एव विकसित होता है । यही भाव 'आविर्भविष्यति' क्रियापदके द्वारा व्यक्त किया गया है |
बन्धतत्त्वका लक्षण और भेद
तत्र' बन्ध. स्वहेतुभ्यो यः संश्लेषः परस्परम् । जीव-कर्म- प्रदेशानां स प्रसिद्धश्चतुर्विधः ||६॥
'सर्वज्ञक उस तत्त्वप्ररूपणमें जीव और कर्म पुद्गल क े प्रदेशोंका जो मिथ्यात्वादि अपने बन्धहेतुत्रोंसे परस्पर संश्लेष हैसम्मिलन और एकक्षेत्रावगाहरूप अवस्थान है— उसका नाम FE है और वह बन्ध ( प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभाग के भेदसे) चार प्रकारका प्रसिद्ध है । '
व्याख्या- यहाँ बन्धतत्त्वका जो स्वरूप दिया है, उससे मालूम होता है कि यह बन्ध जीव और कर्मके प्रदेशोका होता है । कर्म पुद्गल है और पुद्गल द्रव्य अजीवास्तिकायोमे परिगणित है, जैसाकि 'प्रजीवकाया धर्माधर्माऽऽकाशपुद्गला' इस तत्त्वार्थसूत्र से जाना जाता है । इससे जोव और अजीव ऐसे दो तत्त्व और सामने आते है. और इस तरह यह मालूम होता है कि मूल दो तत्त्व सात तत्त्वोमे अथवा प्रकारान्तरसे पुण्य पापको शामिल
९ जीव-कर्म- प्रदेशाना यः सश्लेष परस्परम् 1
द्रव्यबन्धो भवेत्पु सो भाववन्धस्सदोपता || (ध्यानस्तव ५५ ) २ मु मे सहेतुभ्यो ।
३ पर्यादि - ट्ठदि - अणुभाग-प्पदेस भेदा दु चदुविधो वधो । ( द्रव्यसनह)