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दर्शन और बुद्धिवाद । ५ . बुद्धि भौतिक वस्तु है और दर्शन आध्यात्मिक । जो आत्मा और उसके अनन्य चैतन्य में विश्वास नहीं करता, उसके लिए दर्शन बुद्धि का पर्यायवाची होता है । आत्मवादी के लिए इनमें बहुत बड़ा अंतर है-बुद्धि शांत और ससीम होती है, दर्शन अनन्त और असीम ।
मेरे कई मित्रों की ऐसी मान्यता है कि पहले दार्शनिक ज्ञान विकसित हुआ, फिर धर्म की उत्पत्ति हुई। किन्तु मैं ऐसा नहीं मानता। मैं धर्म को दर्शन का साधन मानता हं। धर्म से दर्शन की उत्पत्ति होती है किन्तु दर्शन से धर्म की उत्पत्ति नहीं होती। दर्शन हमारी प्रत्यक्ष चेतना का विकास है और धर्म उसका साधन । जब तक हमारा दर्शन अपूर्ण होता है तब तक हमारे लिए दर्शन और धर्म भिन्न होते हैं। जब हम पूर्ण द्रष्टा बन जाते हैं तब हमारा धर्म हमारे दर्शन में विलीन हो जाता है ; वहां साध्य और साधन का भेद समाप्त हो जाता है । साधना-काल में जो साधन होता है, वह सिद्धि-काल में स्वभाव बन जाता है। दर्शन की साधना करते समय धर्म हमारा साधन होता है और उसकी सिद्धि होने पर धर्म हमारा स्वभाव बन जाता है-हमसे अभिन्न हो जाता है। जिस दर्शन की मैंने चर्चा की है उसे स्व-दर्शन या आत्म-दर्शन कहा जा सकता है। इसके अतिरिक्त जैन, बौद्ध और वैदिक आदि जितने दर्शन हैं, वे सब पर-दर्शन हैं अर्थात् बुद्धि द्वारा गृहीत दर्शन हैं। सारांश की भाषा में जो दर्शन धर्म द्वारा प्राप्त होता है वह स्व-दर्शन होता है और जो बुद्धि द्वारा प्राप्त होता है, वह पर-दर्शन होता है । स्व-दर्शन से आत्मा प्रकाशित होती है और पर-दर्शन से परम्परा का विकास होता है।
आत्मा का स्पर्श करती हई हमारी जो आस्था है, ज्ञान और तन्मयता है, वही धर्म है। इसी धर्म की आराधना से दर्शन का उदय होता है। जो लोग इस आत्म-दर्शन का स्पर्श नहीं करते उनमें बौद्धिक विकास प्रचुर हो सकता है पर दर्शन का उदय नहीं होता।
दर्शन प्रत्यक्ष होता है, आभास से मुक्त होता है। बुद्धि में आभास होता है, संशय भी होता है और विपर्यय भी होता है। बुद्धि हमारा अत्यन्त समाधायक साधन नहीं है, वह कामचलाऊ अस्त्र है । उसके निष्कर्ष अनेक द्वारों से निकलते हैं। न्यूटन ने गुरुत्वाकर्षण के सिद्धान्त की स्था
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