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२४ । तट दो : प्रवाह एक
राजतंत्र-प्रथा के विरोध का आदिम इतिहास भी सन्देह की संकरी पगडण्डियों में से गुजरा है पर आज कोई दास नहीं है और राजे भी इतिहास की वस्तु बन गए हैं।
अहिंसा के प्रति जन-मानस में जो सन्देह है, वह निर्हेतुक नहीं है। अहिंसा में निष्ठा न रखने वालों ने करुणात्मक पक्ष को जिस रूप में प्रस्तुत किया उस रूप में प्रतिकारात्मक पक्ष को नहीं। इसीलिए अहिंसक भी बहुत बार भीरुवत् व्यवहार करते दिखाई देते हैं । सही अर्थ में वे अहिंसक हैं भी कहां ? __ प्रतिकारात्मक शक्ति का विकास स्थिति के अस्वीकार पर निर्भर है। हिंसा का अर्थ है स्थिति का स्वीकार और अहिंसा का अर्थ है स्थिति का अस्वीकार । यह तभी हो सकता है जब हमारी निष्ठा अध्यात्म में हो यानी आत्मा की स्वतंत्र सत्ता को हम स्वीकार करें। जो स्थिति को स्वीकार करता है, वह आत्मा की स्वतंत्र सत्ता को अस्वीकार करता है और जो आत्मा की स्वतंत्र सत्ता को स्वीकार करता है, वह स्थिति को अस्वीकार करता है । वह कैसा अहिंसक और कैसा अध्यात्मवादी जो स्थिति को मान्यता दे, यह समझ में आने वाली बात है; पर आत्मा की स्वतंत्र सत्ता में निष्ठा रखने वाला उसे मान्य करे, यह समझ से परे है।
प्रतिकारात्मक शक्ति का अर्थ किसी की सत्ता या किसी के कर्म का प्रतिरोध करना नहीं है । उसका अर्थ है, स्वतंत्र कर्म-शक्ति का निर्माण । परिस्थिति से प्रभावित होकर हम जितना भी कर्म करते हैं, वह हमारा कर्म नहीं, किन्तु प्रतिकर्म होता है। हमारी अधिकांश प्रवृत्तियां क्रियात्मक नहीं किन्तु प्रतिक्रियात्मक ही होती हैं। हम बाह्य परिस्थिति से अप्रभावित रहकर कर्म करने लगें तो हममें प्रतिकारात्मक शक्ति का उदय स्वयं हो जाय। ___ अंधेरे में भूत को स्वीकार करने से डर लगता है। गाली को स्वीकार करने से क्रोध उभरता है। अपनी हीनता के स्वीकार से ही दूसरे के प्रति जलन पैदा होती है। यह दोष स्थिति में नहीं है, उसके स्वीकार में है। हम किसी दूसरे व्यक्ति के हस्तक्षेप को अपनी स्वतंत्र सत्ता में बाधा मानते हैं पर परिस्थिति के हस्तक्षेप को वैसा नहीं मानते । सचाई तो यह है कि वह
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