Book Title: Tat Do Pravah Ek
Author(s): Nathmalmuni
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 115
________________ १०६ । तट दो : प्रवाह एक ( शुक्रजनित पथरी) रोग उत्पन्न होता है । ओज जितना बढ़े उतना ही लाभप्रद है । उसकी वृद्धि से मन की तुष्टि, शरीर की पुष्टि और बल का उदय होता है । २ वीर्य - व्यय के मार्ग वीर्य - व्यय के दो मार्ग हैं— जननेन्द्रिय और मस्तिष्क । भोगी तथा रोगी व्यक्ति के काम-वासना की उद्दीप्ति तथा वायु-विकार आदि शारीरिक रोग होने पर वीर्य का व्यय जननेन्द्रिय से होता है योगी लोग वीर्य का प्रवाह ऊपर की ओर मोड़ देते हैं । अतः उनके वीर्य का व्यय मस्तिष्क में होता है । वीर्य का प्रवाह नीचे की ओर अधिक होने से काम-वासना बढ़ती है और उसका प्रवाह ऊपर की ओर होने से कामवासना घटती है । अब्रह्मचर्य का प्रभाव काम-वासना के कारण जननेन्द्रिय द्वारा जो वीर्य व्यय होता है, वह ब्रह्मचर्य का ही एक प्रकार है । वह सीमित होता है तो उसका शरीर पर अधिक हानिकर प्रभाव नहीं होता । मन में मोह और संस्कारों में अशुद्धि उत्पन्न होती है, इसे आध्यात्मिक दृष्टि से हानि ही कहा जाएगा । जो आदमी अब्रह्मचर्य में अति आसक्त होता है, उसकी वृषण - ग्रन्थियों में आने वाले रस-रक्त का उपयोग बहिःस्राव उत्पन्न करने वाले अवयव कर लेते हैं । इसका फल यह होता है कि अन्तःस्राव उत्पन्न करने वाले अवयव उचित सामग्री के अभाव में अपना काम करने में अक्षम रह जाते हैं । फलतः सर्वधातुओं और सर्वांग पर होने वाले अन्तःस्राव के महत्त्वपूर्ण प्रभावों से वह वंचित रह जाता है और अनेक प्रकार के विकार उसके शरीर उत्पन्न होते हैं । आयुर्वेद के ग्रन्थों में इस विषय को एक उदाहरण के द्वारा समझाया गया है । " सात क्यारियों में सातवीं क्यारी में बड़ा गर्त हो किंवा उसमें से जल के निकलने के लिए छेद हो तो सीधी-सी बात है कि पहले सम्पूर्ण जल १. अतिस्त्रीकामतां वृद्धं, शुक्रं शुक्राश्मरीमपि । २. ओजो वृद्धौ हि देहस्य, तुष्टिपुष्टि बलोदयः ॥ For Private & Personal Use Only Jain Education International - शुश्रुत: ११।१२॥ - शुश्रुत : १२।४१ ॥ www.jainelibrary.org

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