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ब्रह्मचर्य का शरीर-शास्त्रीय अध्ययन । १०५
है। यह स्थिति शारीरिक और मानसिक दोनों प्रकार के स्वास्थ्य के लिए बहुत लाभप्रद है। वीर्याशय खाली होता रहे तो वीर्य पहली धारा में इतना चला जाता है कि दूसरी को वह पर्याप्त रूप से मिल ही नहीं पाता। फलतः दोनों प्रकार के स्वास्थ्य को हानि पहुंचती है। वीर्याशय खाली न हो, इसकाध्यान रखना स्वास्थ्य का प्रथम प्रश्न है। वीर्य और ओज
जीवन के दस स्थान हैं : १. मूर्धा ६. वस्ति २. कण्ठ ७. ओज ३. हृदय ८. शुक्र ४. नाभि ६. शोणित
१०. मांस ये दस स्थान दूसरे प्रकार से भी मिलते हैं :
१-२ : दो शंख-पटपड़ियां। ३-४-५ : तीन मर्म-हृदय, वस्ति और सिर । ६. कण्ठ । ७. रक्त । ८. शुक्र । ६. ओज । १०. गुदा।
ओज इन दोनों प्रकारों में है। वह वीर्य (धात) का अन्तिम सार नहीं है, किन्तु सातों धातुओं (रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा, शुक्र) का अन्तिम सार है। उसका केन्द्र-स्थान हृदय है, फिर भी वह व्यापी है।
इससे दो बातें निरापन्न होती हैं : १. ओज का सम्बन्ध केवल वीर्य से नहीं है। २. वीर्य का स्थान अण्डकोष है, जबकि ओज' का स्थान हृदय है।
ओज और वीर्य में तीसरा अन्तर यह है कि वीर्य का मध्यम परिमाण हो लाभप्रद होता है। वह हीन-मात्रा में हो तो क्षीणता आदि दोष बढ़ते हैं। वह अति-मात्रा में हो तो उससे मैथुन को प्रबल इच्छा और शुक्राश्मरी
१. ओजस्तु तेजो धातूनां, शुक्रान्तानां परं स्मृतम् ।
हृदयस्थ मपि व्यापि, देह स्थिति निबन्धनम् ॥–शुश्रुत : ११॥३७॥
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