Book Title: Tat Do Pravah Ek
Author(s): Nathmalmuni
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 128
________________ अकाल-मत्यु उत्पन्न की मृत्यु और मृत की उत्पत्ति—यह चक्र है। इसी चक्र का नाम संसार है । संसार में ऐसा कोई प्राणी नहीं जिसकी उत्पत्ति है और मृति नहीं है । मृत्यु होती है,यह मीमांसनीय नहीं है । मीमांसनीय यह है कि वह कब होती है-अवधि पूरी होने पर या उससे पूर्व ? जिस राष्ट्र के नागरिक काल-मृत्यु से मरते हैं, वह राष्ट्र सुसंस्कृत, स्वस्थ और शान्तिप्रिय होता है। जो राष्ट्र ऐसा नहीं होता, उसके नागरिक अकाल-मृत्यु से मरते हैं। अकाल-मृत्यु व्यक्ति या राष्ट्र की अशक्ति और अस्वस्थता की सूचक है। स्थानांग में अकाल-मृत्यु के सात हेतु बतलाए गए हैं। उनसे भी यही फलित होता है । अकाल-मृत्यु के सात हेतु : १. अध्यवसान-राग, स्नेह, भय, घृणा आदि । २. निमित्त-शस्त्र आदि। ३. आहार-असंतुलित या अधिक । ४. वेदना-रोग । ५. पराघात—चोट आदि । ६. स्पर्श—सर्प-दंश आदि । ७. आनापान-उच्छ्वास-निःश्वास का .... इनमें दूसरा हेतु मानसिक स्वस्थता से सम्बन्धित है । शस्त्र का प्रयोग असंतुलित मस्तिष्क और मनवाला व्यक्ति करता है। जिस प्रदेश के निवासी संतुलित मन वाले होते हैं, वहाँ निमित्त-जनित अकाल मृत्यु नहीं होती। जिस प्रदेश की चिकित्सा-पद्धति विकसित होती है, वहां वेदना, पराघात, स्पर्श और आनापान-जनित अकाल-मृत्यु का अनुपात बहुत कम हो जाता है । जो व्यक्ति खाद्य-संयम रखता है, वह आहार-जनित अकालमृत्यु से ग्रसित नहीं होता। निमित्त, वेदना आदि से अकाल-मृत्यु होती है, इसे प्रायः सभी लोग जानते हैं। अधिक खाने से अकाल-मृत्यू होती है, इसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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