Book Title: Tat Do Pravah Ek
Author(s): Nathmalmuni
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 125
________________ आत्म-दमन भारतीय दर्शन आत्म-दमन पर विशेष बल देते रहे हैं। आज के मनोविज्ञान से प्रभावित मानव को यह अप्रिय लगता है। मैं औरों की बात क्या कहँ । मैं अपने मन की बात आपको बताऊं। मैंने जब-जब 'उत्तराध्ययन' के निम्न दो श्लोक पढ़े, तब-तब मेरा मन आहत-सा हुआ। वे श्लोक ये हैं : अप्पा चेव दमेयव्वो अप्पाहु खलु दुद्दमो। अप्पा दन्तो सही होइ अस्सि लोए परत्थ य । १।१५। वरं मे अप्पा दन्तो संजमेण तवेण य। माहं परेहिं दम्मतो बन्धणेहि वहेहि य । १।१६। आत्मा का ही दमन करना चाहिए। क्योंकि आत्मा ही दुर्दम है। दमित-आत्मा ही इहलोक और परलोक में सुखी होती है। अच्छा यही है कि मैं संयम और तप के द्वारा अपनी आत्मा का दमन करू । दूसरे लोग बन्धन और वध के द्वारा मेरा दमन करें—यह अच्छा नहीं है। मेरे साथी और भी बहत होंगे? दमन शब्द मेरी तरह उनके मन को भी आहत करता होगा ? आचार्य रजनीशजी का मन भी इसी शब्द से आहत हुआ है। उन्होंने लिखा है—'एक प्रवचन कल सुना है । उसका सार था : आत्म-दमन । प्रचलित रूढ़ि यही है। सोचा जाता है कि सबसे प्रेम करना है पर अपने से-अपने से घृणा करनी है, स्वयं अपने से शत्रुता करनी है, तब कहीं आत्म-जय होती है। पर यह विचार जितना प्रचलित है, उतना ही ग़लत भी है। इस मार्ग से व्यक्तित्व दैन्य में टूट जाता है और आत्म-हिंसा की शुरुआत होती है और हिंसा सब कुरूप कर देती है । __मनुष्य को वासनाएं इस तरह दमन नहीं करनी हैं, न की जा सकती हैं । यह हिंसा का मार्ग धर्म का मार्ग नहीं है । इसके परिणाम में ही शरीर को सताने के कितने रूप विकसित हो गए हैं। उनमें दीखती है तपश्चर्या, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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