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ब्रह्मचर्य का शरीर-शास्त्रीय अध्ययन । १०७
उस गढ़े में भरने लगेगा या उस क्यारी को पूर्ण करने में व्यय होगा। यही स्थिति अति मैथुन आदि के कारण होने वाले शुक्रक्षय में होती है । निश्चित ही सम्पूर्ण रस प्रथम शुक्र-धातु की पुष्टि में लगता है परन्तु अति मैथुनवश शुक्र पुष्ट हो ही नहीं पाता। परिणामतया अन्य धातुओं की पुष्टि रस से हो नहीं पाती और शरीर में विभिन्न विकार उत्पन्न हो जाते हैं।" ब्रह्मचर्य का महत्त्व
ब्रह्मचर्य से इन्द्रिय-विजय और इन्द्रिय-विजय से ब्रह्मचर्य सिद्ध होता है। वस्तुतः इन्द्रिय-विजय और ब्रह्मचर्य दो नहीं हैं। ब्रह्मचर्य की इन्द्रियविजय से एकात्मकता है, इसलिए उससे शरीर की स्थिरता, मन की स्थिरता और अनुद्विग्नता, अदम्य उत्साह, प्रबल सहिष्णुता, धैर्य आदि अनेक गुण विकसित होते हैं।
ब्रह्मचर्य से हमारे स्थूल अवयव उतने प्रभावित नहीं होते, जितने सूक्ष्म अवयव होते हैं।
कुछ लोगों का मत है कि पूर्ण ब्रह्मचर्य का शरीर और मन पर अनूकूल प्रभाव नहीं होता। इस मत में सचाई का अंश भी है पर उसी स्थिति में जब ब्रह्मचर्य का पालन केवल विवशता की परिस्थिति में हो। चिन्तन के प्रवाह को काम-वासना की लहरों से मोड़कर अन्य उदात्त भावनाओं की ओर ले जाया जाए तो ब्रह्मचर्य स्वशता की परिस्थिति में विकास पाता है। वह शरीर और मन की सूक्ष्मतम स्थितियों पर बड़ा लाभदायी प्रभाव डालता है। ब्रह्मचर्य की भावना क्यों ?
बहुत सारे लोग ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहते हैं, फिर भी नहीं कर पाते, ऐसा क्यों होता है ? अब्रह्मचर्य की भावना सहज ही क्यों उभर आती है ? इस प्रश्न का उत्तर कर्म-शास्त्रीय भाषा में यह है कि यह सब मोह के कारण होता है पर शरीर-शास्त्र की भाषा में कर्म का स्थान नहीं है। उसके अनुसार काम-वाहिनी नाड़ियों में रक्त का संचरण होने से अब्रह्मचर्य की भावना उभरती है। उसका संचरण नहीं होता तो वह भावना नहीं उभरती, कम हो तो कम और अधिक हो तो अधिक। इस सन्दर्भ में हम उस तथ्य की ओर संकेत कर सकते हैं कि ब्रह्मचारी के लिए गरिष्ठ या दर्पक आहार
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