Book Title: Tat Do Pravah Ek
Author(s): Nathmalmuni
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 43
________________ ३४ । तट दो : प्रवाह एक प्राकृतिक रूप में मनुष्य-स्वभाव और जनतन्त्र की पद्धति में मेल नहीं है, किन्तु उनका मेल बिठाया जाता है। मनुष्य कुछ स्वभाव से बदलता है और कुछ जनतन्त्र । नियन्त्रण काथोड़ा विस्तार और इच्छा का थोडासंकोच, दबाव का थोड़ा विस्तार और प्रयत्न का थोड़ा संकोच, कानून का थोड़ा विस्तार और उच्छृखलता का थोड़ा संकोच-यह जनतन्त्र का आकार बनता है। आज का जनतन्त्र इस आकार का नहीं है, इसलिए जनता और शासन दोनों ओर से अधिक दबाव आ रहा है। मैं नहीं कहता कि जनता का दबाव कम हो और सरकार का दबाव बढ़े, या सरकार का दबाव कम हो और जनता का दबाव बढ़े। ये दोनों विकल्प जनतन्त्र के लिए स्वस्थ नहीं हैं । उसकी स्वस्थता इसमें है कि दोनों ओर का दबाव घटे । जनतन्त्र में निरंकुश शासक और निरंकुश जनता दोनों खतरनाक होते हैं। इस खतरनाक स्थिति के लक्षण हाल की घटनाओं में प्रकट हो रहे हैं। दूकानों की लूट, अग्निकाण्ड, शस्त्रों का प्रयोग, पथराव और गोलियों की बौछार—ये अनुशासित नागरिकों के चरण-चिह्न नहीं हैं । सरकारी निर्णय के विरुद्ध वैधानिक उपाय काम में लिए जाते हैं, यह अनुचित नहीं, किन्तु अराजकतापूर्ण स्थिति का निर्माण उचित भी नहीं है। इससे जनतन्त्रीय प्रणाली को आघात पहुंचता है और एकाधिनायकता को बल मिलता है। सरकारी निर्णय सभी पक्षों को प्रिय लगें यह सम्भव नहीं । अप्रिय निर्णय का विरोध न हो यह भी जनतन्त्र में असम्भव है। सम्भव यह है कि विरोध की पद्धति वैधानिक एवं शालीन हो । जनता को अनुशासन-विहीन बनाने में शायद किसी भी दल का हित नहीं है। आज एक दल को जनता की उत्तेजनापूर्ण और अनुशासन-विहीन प्रवृत्तियों का सामना करना पड़ रहा है, कल किसी दूसरे-तीसरे दल को भी करना पड़ सकता है। जनतन्त्र का भविष्य इस प्रश्न पर निर्भर नहीं है कि शासन किस दल का है ? उसका भविष्य इस तथ्य पर सुरक्षित है कि उसकी जनता अनुशासित है और हर परिस्थिति का अनुशासित ढंग से सामना कर सकती है। शासक लोग भी आग्रह से मुक्त होकर जनता की स्थिति को जानना न चाहें, वस्तुस्थिति के साथ आंख-मिचौनी करें तो निश्चित रूप से अ-लोकतन्त्रीय प्रवत्तियों को प्रोत्साहन मिलता है । यत्र-तत्र विधान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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