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ब्रह्मचर्य । ६६
नाड़ी है। उसका स्थान पैर के अंगूठे से लेकर मस्तिष्क के पिछले भाग तक है। काम-वासना को मिटाने के लिए जो आसन किए जाते हैं उन आसनों से इसी नाड़ी पर नियंत्रण किया जाता है। खाने से वीर्य बनता है। वह रक्त के साथ भी रहता है और वीर्याशय में भी जाता है। वीर्याशय में अधिक वीर्य जाने से अधिक उत्तेजना होती है और काम-वासना भी अधिक जागती है । ब्रह्मचारी के सामने यह एक कठिनाई है कि वह जीते-जी खाना नहीं छोड़ सकता। जो खाता है उसका रस आदि भी बनता है। वीर्य भी बनता है। वह अण्डकोश में जाकर संग्रहीत भी होता है और वह वीर्याशय में भी जाता है। योगियों ने इस समस्या पर विचार किया कि इस परिस्थिति को विवशता ही माना जाय या इस पर नियंत्रण पाने का कोई उपाय ढूंढा जाय। उन्होंने स्पष्ट अनुभव किया–वीर्य केवल वीर्याशय में जाएगा तो पीछे से चाप पड़ने से आगे का वीर्य बाहर निकलेगा, फिर दूसरा आएगा और वह भी खाली होगा। खाली होना और भरना यही क्रम रहेगा तो शरीर के अन्य तत्त्वों को पोषण नहीं मिलेगा। इसलिए उन्होंने वीर्य को मार्गान्तरित करने की पद्धति खोज निकाली। मार्गान्तरण के लिए ऊर्ध्वाकर्षण की साधना का विकास किया। उनका प्रयत्न रहा कि वीर्य वीर्याशय में कम जाए और ऊपर सहस्रार-चक्र में अधिक जाए । इस प्रक्रिया में वे सफल हए । वीर्य को ऊर्ध्व ले जाने से वे ऊर्ध्वरेता बन गए। चाप पड़ने का कारण
वीर्याशय पर चाप पड़ने का एक कारण आहार है। ब्रह्मचर्य के लिए आहार का विवेक अत्यन्त आवश्यक है। अतिमात्र-आहार और प्रणीतआहार दोनों वर्जनीय हैं । गरिष्ठ आहार नहीं पचता, इसलिए वह कब्ज करता है । मलावरोध होने से कुवासना जागती है और वीर्य का क्षय होता है। इसलिए पेट भारी रहे उतना मत खाओ और प्रणीत-आहार मत करो। संतुलित आहार करो, जिससे पेट साफ रहे । खाना जितना आवश्यक है उससे कहीं अधिक आवश्यक है मल-शुद्धि । मल के अवरोध से वायु बनती है। वायु जितनी अधिक बनेगी उतना ही अहित होगा । वायु-विकार से अधिक बचो। वीर्य का जब अधिक चाप होता है तब ब्रह्मचर्य के प्रति
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