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१०० । दो तट : प्रवाह एक
सन्देह उत्पन्न हो जाता है। _ 'उत्तराध्ययन' में कहा गया है-"बंभचेरे संका वा कंखा वा वितिगिच्छा वा समुप्पज्जिज्जा भेयं वा लभेज्जा, उम्मायं वा पाउणिज्जा, दीहकालियं वा रोगायक हवेज्जा, केवलियन्नत्ताओ वा धम्माओ भंसेज्जा।"
शंका, कांक्षा और विचिकित्सा उत्पन्न होती है, भेद होता है, उन्माद होता है, दीर्घकालिक रोग और आतंक भी हो जाता है तथा केवलि-प्रज्ञप्तधर्म से भ्रष्ट हो जाता है। ब्रह्मचर्य की साधना के लिए कुछेक साधनों की सूचना दी जाती है। उनका अभ्यास किया जाए तो वह निश्चित परिणाम लाएगा। इनमें पहला साधन वीर्य-स्तम्भ प्राणायाम है । इसका दूसरा नाम ऊर्ध्वाकर्षण प्राणायाम भी है। सिद्धासन में बैठकर पूर्ण रूप से रेचन करें। रेचन-काल में चिन्तन करें कि मेरा वीर्य रक्त के साथ मिलकर समूचे शरीर में व्याप्त हो रहा है। परक करें। जालन्धर बंध और मूल बंध करें। पूरक काल में पेट को सिकोड़ें और फुलाएं। सिकोड़ने और फुलाने की क्रिया को पांच-सात पूरकों में सौ बार दोहराएं।
दूसरा ध्यान है । तीसरा अल्पकालीन कुम्भक है। चौथा प्रतिसंलीनता
इन्द्रियां चंचल होती हैं। पर वह उनकी स्वतंत्र प्रवृत्ति नहीं है । मन से प्रेरित होकर ही वे चंचल बनती हैं । मन जब स्थिर और शान्त होता है तब वे अपने-आप स्थिर और शान्त हो जाती हैं। मन अन्तर्मुखी बनता है, तब इन्द्रियां अन्तर्मुखी हो जाती हैं। महर्षि पतंजलि ने इसी आशय से लिखा है-'स्वविषया सम्प्रयोगे चिन्तस्य स्वरूपानुकारइवेन्द्रियाणां प्रत्याहारः' । अपने विषयों के असंप्रयोग में चित्त के स्वरूप का अनुकरण जैसा करना इन्द्रियों का प्रत्याहार कहलाता है । प्रत्याहार के स्थान पर जैन आगमों में प्रतिसंलीनता का उल्लेख है। औपपातिक सूत्र में इन्द्रिय प्रतिसंलीनता के पांच प्रकार बतलाए गए हैं। ___ इन्द्रिय प्रतिसं लीनता के दो मार्ग हैं-विषय-प्रचार का विरोध और राग-द्वेष का निग्रह । आँखों से न देखें यह विषय प्रचार का निरोध है । विषय के साथ सम्बन्ध स्थापित हो जाए वहां राग-द्वेष न करना, रागद्वेष निग्रह है। प्रतिसंलीनता का अर्थ है-अपने-आप में लोन होना।
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