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युद्ध और अहिंसा । ३६
कि उनकी मान्यता के अनुसार अहिंसा के द्वारा सब कुछ निष्पन्न हो सकता है । आचार्यश्री तुलसी अहिंसा की मर्यादा और उसके निश्चित परिणाम में विश्वास करते हैं । जैसा कि उन्होंने लिखा है - मैं अध्यात्म और अहिंसा के प्रति पूर्ण आस्थावान हूं, फिर भी उनसे ( राष्ट्र और समाज की ) सारी समस्याओं का समाधान होता है -- इसे मैं भ्रम मानता हूं । भौतिक उपकरणों पर स्वत्व का विसर्जन करें तो हमारी सारी समस्याएं अध्यात्म तथा अहिंसा से सुलझ सकती हैं । किन्तु उन पर स्वत्व स्थापित रखना चाहें और शस्त्र -सज्जा से विमुख भी रहना चाहें तथा ( जब ) अहिंसा से सब भौतिक उपकरणों की सुरक्षा न हो तब उसे असफल भी बताएं - यह दुहरा - तिहरा भ्रम है । हमें हिंसा और अहिंसा की मर्यादा और उनके परिणामों को समझ कर ही चलना चाहिए ।
भारत एक राष्ट्र है । वह भूमि, अर्थ, पदार्थ, सत्ता और अधिकार का संगठित संस्थान है । उसके शासक, जो अहिंसा की बात करते थे, वे इस अर्थ में करते थे और आज भी करते हैं कि कोई किसी पर आक्रमण न करे और आक्रमण के लिए शस्त्र - सज्जा न बढ़ाए ।
कोई भी राष्ट्र जो स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में अपना अस्तित्व बनाए रखना चाहता है, प्रत्याक्रमण की मर्यादा से अपने को मुक्त नहीं रख सकता। हां, प्रत्याक्रमण की मर्यादा से राष्ट्र को तब मुक्त रखा जा सकता है, जब उसका शासक- - वर्ग और जनता यह मान ले कि इस राष्ट्र पर हमारा कोई स्वत्व नहीं है, जो चाहे वह आए और इसे अपने स्वत्व में ले, यह भावना हो तो प्रत्याक्रमण की कोई भी आवश्यकता नहीं रहती । भौतिक पदार्थों का स्वत्व भी रखना चाहे और उनका संरक्षण अहिंसा के द्वारा करना चाहे - यह दुहरी भूल है । उनका संरक्षण स्वयं हिंसा है और फिर वह अहिंसा का परिणाम कैसे हो सकता है ? अहिंसा के द्वारा उसी वस्तु की रक्षा हो सकती है, जो उसके परिणाम - काल में भी अहिंसा हो । भौतिक पदार्थ, सत्ता और अधिकार ये सब स्वयं हिंसा हैं, तब अहिंसा उनका संरक्षण कर पाए, वह कैसे हो सकता है ?
उक्त विचारधारा के कुछ लोग कहते हैं—अहिंसा अणुव्रत अहिंसा का विभाजन है । आचार्य श्री तुलसी की दृष्टि में अणुव्रत अहिंसा की विभक्ति
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