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कायोत्सर्ग। ६५
१. विनय, २. सेवा। नवीं कक्षा है---- आहार-संयम।
साधना की ये नौ कक्षाएं हैं । प्रस्तुत निबन्ध में मैं पहली कक्षा पर प्रकाश डालूंगा। कायोत्सर्ग : सिद्धान्त पक्ष - प्रवृत्ति के तीन स्रोत हैं-काय, वाणी और मन । इनमें मुख्य काय है। वाणी और मन उसके माध्यम से ही प्रवृत्त होते हैं। काय के स्पन्दनकाल में वाणी और मन प्रस्फुटित होते हैं। उसकी अस्पन्द-दशा में वे विलीन हो जाते हैं। शास्त्रीय परिभाषा यह है—भाषा और मन की पुद्गल वर्गणाओं का ग्रहण काय-योग के द्वारा होता है। फिर उनका भाषा और मन के रूप में परिणमन होता है और विसर्जन-काल में वे भाषा और मन कहलाते हैं-भाष्यमाणी भाषा होती है, पहले-पीछे नहीं होती, इसी प्रकार मन्यमान मन होता है, पहले-पीछे नहीं होता।
काय वाणी और मन की प्रवृत्ति का स्रोत है, इसीलिए उसकी निवृत्ति या स्थिरता वाणी और मन की स्थिरता का आधार बनती है। काय का त्याग होने पर वाणी और मन स्वयं त्यक्त हो जाते हैं । कायोत्सर्ग : अभ्यास-पक्ष
कायोत्सर्ग (शरीर-विसर्जन) की पहली प्रक्रिया शिथिलीकरण है। यदि आप बैठे-बैठे कायोत्सर्ग करना चाहते हैं तो सुखासन में बैठ जाइएपालथी बाँधकर या अर्ध पद्मासन या पद्मासन लगाइए। फिर पृष्ठ वंश (रीढ की हड्डी) और गर्दन को सीधा कीजिए। यह ध्यान रहे कि उनमें न झुकाव हो और न तनाव हो। वे शिथिल भी रहें और सीधे सरल भी। अब दीर्घ श्वास लीजिए। श्वास को उतना लम्बाइए जितना बिना किसी कष्ट के लम्बा सकें । इससे शरीर और मन दोनों के शिथिलीकरण में बड़ा सहारा मिलेगा। आठ-दस बार दीर्घ श्वास लेने के बाद वह क्रम सहज हो जाएगा। फिर शिथिलीकरण में मन को लगाइए। स्थिर बैठने से कुछ-कुछ शिथिलीकरण तो अपने-आप हो जाता है। अब विचारधारा द्वारा प्रत्येक अवयव को शिथिल कीजिए। मन को उसी अवयव में टिकाइए, जिसे आप
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