Book Title: Tat Do Pravah Ek
Author(s): Nathmalmuni
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 47
________________ ३८ । तट दो : प्रवाह एक २. प्रत्याक्रमण में विश्वास रखने वाले मध्यममार्गी । ३. अनाक्रमण में विश्वास रखने वाले अहिंसावादी। अन्तर्राष्ट्रीय साम्यवाद में विश्वास रखने वाले हिंसावादी लोग जैसे अपने देश के प्रति कोई विशेष अनुराग नहीं रखते, वैसे ही प्राणी-मात्र के प्रति सद्भावना में विश्वास रखने वाले अहिंसावादी भी किसी देश विशेष के प्रति अनुराग नहीं रखते, किन्तु दोनों एक श्रेणी के नहीं होते। हिंसावादी के सामने शत्रु और मित्र का विभाग होता है। अहिंसावादी के सामने वह विभाग नहीं होता। वह किसी को शत्रु नहीं मानता । ___ आचार्यश्री तुलसी अहिंसावादी हैं। अहिंसा की सक्रिय आराधना में वे प्राणपण से संलग्न हैं। उनकी आत्मा युद्ध का क्या, किसी छोटे-से-छोटे विग्रह का भी सर्मथन नहीं कर सकती। वे आक्रमण को घोर हिंसा मानते हैं। प्रत्याक्रमण उनकी दृष्टि में अहिंसा नहीं है, किन्तु आक्रमण और प्रत्याक्रमण भी एक कोटि की हिंसा है, यह भी उनका अभिमत नहीं है। आक्रमण घोर और अनर्थकारी हिंसा है। इसलिए उसके समर्थन का प्रश्न ही नहीं आता । प्रत्याक्रमण भी अहिंसा नहीं है, इसलिए उसका समर्थन भी एक अहिंसावादी कैसे कर सकता है ? किन्तु जैसे आक्रमण का तिरस्कार या विरोध किया जा सकता है, वैसे प्रत्याक्रमण का तिरस्कार या विरोध नहीं किया जा सकता। कुछ अहिंसावादी लोग जिनका हिंसा और अहिंसा-सम्बन्धी चिन्तन बहुत स्पष्ट नहीं है इस पर आश्चर्यचकित हैं कि आचार्यश्री तुलसी ने युद्ध का विरोध नहीं किया। उनका मानना है कि भारत अहिंसा और निःशस्त्रीकरण की बातें और युद्ध टालने का प्रयत्न करता रहा है। आज जब उस पर संकट आया तो वह तत्काल शस्त्रीकरण करने तथा युद्ध करने में संलग्न हो गया। जब कोई संकट न आए तब अहिंसा की बात और जब संकट आए तब युद्ध, यह कैसी अहिंसा? यही तो कसौटी का समय है । इसी समय उसे अहिंसा के द्वारा हिंसा को परास्त कर विश्व के सम्मुख एक उदाहरण प्रस्तुत करना चाहिए था। यह चिन्तन अहिंसावादी के लिए सर्वथा अर्थशून्य है, यह तो नहीं कहा जा सकता किन्तु यह भी नहीं कहा जा सकता है कि यह सर्वथा भ्रान्तिशून्य है और यह भ्रान्ति इसलिए उत्पन्न हुई है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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