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६६ । तट दो : प्रवाह एक
इतनी बढ़ी है कि वहां के लोग यह अनुभव करने लगे हैं कि यदि आध्यात्मिकता का जीवन में प्रवेश नहीं हुआ तो बिना किसी एटम बम या हाइड्रोजन बम के ही हम सब समाप्त हो जाएँगे।
आज का पढ़ा-लिखा आदमी अधिक असंतुलित हो गया है। जिस प्रकार शारीरिक संतुलन बिगड़ने पर मनुष्य के शरीर में गड़बड़ रहती है, ठीक उसी प्रकार मानसिक संतुलन बिगड़ने पर लोग घबराए-से रहते हैं। वैसे तो प्रत्येक मनुष्य में कुछ न कुछ पागलपन अवश्य होता ही है, परन्तु बहुत पढ़े-लिखे लोग और अधिक पागल देखे जाते हैं। बड़े-बड़े दार्शनिकों को कभी-कभी यह भी याद नहीं आता है कि उन्होंने भोजन किया है या नहीं, इसके बारे में वे अपने नौकरों से पूछते हैं। किन्तु वह पागलपन विकास के लिए बहुत ही आवश्यक होता है परन्तु उसकी भी एक सीमा है। यदि यहां के पहाड़ों की सीमा न होती तो क्या उदयपुर यहां होता ? जयसमन्द की सीमा नहीं होती तो क्या गुजरात होता ? वे दोनों ससीम हैं। इसीलिए उदयपुर भी है, गुजरात भी।
__ आज अर्थ को इतनी अधिक मान्यता दे दी गई है कि उसके आगे कुछ सोचने को शेष ही नहीं रह जाता है। ईश्वर, आकाश एवं मनुष्य की तृष्णा, ये तीन चीजें असीम मानी गई हैं। आज के लोगों ने ईश्वर को उखाड़ फेंका, आकाश को ससीम माना परन्तु अपनी तृष्णा को असीम ही रहने दिया। तृष्णा का विस्तार अधिक हुआ है, कम नहीं । आज के मनुष्य को जन्म से जो विचार, जो धारणाएं प्राप्त होती हैं, उनके साथ आत्मानुशासन जैसी कोई चीज़ जुड़ी ही नहीं है। धर्म की तो लोग मखौल उड़ाते हैं। आदिवासी जातियों में आपको नैतिकता अधिक मिल सकती है । लोक-कला मण्डल में आचार्यश्री के पधारने पर श्री सांभरजी ने बताया कि भारत की प्राचीन संस्कृति का दर्शन आदिवासियों में ही हो सकता है। आधुनिक सभ्यता के लोग उन्हें सभ्य बनाने जाते हैं परन्तु मेरे विचार से वे भारतीय संस्कृति का अन्त करना चाहते हैं। इसी प्रकार दक्षिणी अफ्रीका के एक विद्वान ने लिखा है कि हम यहां के आदिवासियों को सभ्य नहीं बना रहे हैं बल्कि उन्हें बर्बाद कर रहे हैं । आज की नयी सभ्यता के लोग प्राचीन चीज़ों को अंधविश्वास कहकर मखौल उड़ाते हैं परन्तु सारी चीजें अंध
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