________________
८६ । तट दो : प्रवाह एक
का लय होता है, वह मंत्रयोग है।
राजयोग : शरीर, वायु और मन को स्थिर करना राजयोग है। यह प्राणायाम या प्राणविजय की प्रक्रिया है।
योग-चतुष्ट्य के परिवार के रूप में बन्ध, नाड़ी, वायु, तत्त्व, जप, चक्र आदि का ज्ञान आवश्यक है। बन्ध बन्ध तीन हैं :
(१) जालन्धर (२) उड्डीयान
(३) मूल (१) जालन्धर : ठुड्डी को कण्ठ कूप में स्थापित करने को जालन्धर बन्ध कहा जाता है। सर्वांगासन, हलासन तथा मत्स्यासन की एक मुद्रा में यह अपने-आप हो जाता है। मानसिक विकास के लिए यह बहुत उपयोगी है। इससे कण्ठमणि (थाइरायड ग्लैण्ड) पर उचित दबाव पड़ता है। आधुनिक शरीर-शास्त्रियों के अनुसार कण्ठमणि ही शरीर में रक्त-ताप तथा प्रेम, ईर्ष्या, द्वेष आदि वत्तियों को उत्पन्न करने वाला है। इससे थाइरोक्लिन रस का स्राव होता है । वह उक्त वृत्तियों को उत्पन्न करता है । यह हमारे शरीर की नियामक ग्रन्थि है। इस पर जालन्धर बन्ध के द्वारा हम नियंत्रण रख सकते हैं और अनेक उपयोगी रसों का स्राव कर सकते हैं।
(२) उड्डीयान : पेट को अन्दर सिकोड़ने और फिर बाहर फुलाने को उड्डीयान बन्ध कहा जाता है।
(३) मूल : गुदा के ऊर्वाकर्षण को मूल बन्ध कहा जाता है। नाड़ियां प्रधान नाड़ियां तीन हैं :
(१) सूर्य नाड़ी इड़ा (२) चन्द्र नाड़ी—पिंगला
(३) सुषुम्णा सूर्य नाड़ी की उत्पत्ति मणिपूर चक्र से दाएं नथुने से मिलती हुई होती है, इसलिए उसका श्वास गर्म होता है। बाएं नथुने से श्वास अनाहत चक्र
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org