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स्वतन्त्रता और आत्मानुशासन
कितना मधुर है यह स्वतन्त्रता शब्द । एक तोता पेड़ की टहनी पर बैठकर जिस खुशी से झूमता है, वह उसी खुशी से सोने के पिंजड़े में नहीं झूमता । पिंजड़ा आखिर पिंजड़ा ही है, भले फिर वह लोहे का हो या सोने का । स्वतन्त्रता की मादकता का एक कण परतन्त्रता के सागर से अधिक मूल्यवान् और प्राणदायी होता है । परन्तु आश्चर्य है कि स्वतन्त्रता के अठारह वर्षों के बाद भी हिन्दुस्तान पूरी मादकता से नहीं झूम रहा है । ऐसा लगता है कि वह राजनीति की परतन्त्रता से मुक्त होकर भी मानसिक परतन्त्रता से मुक्त नहीं है । वाणी की स्वतन्त्रता उसे प्राप्त है, पर वाणी का संयम उसे प्राप्त नहीं है । लेखन की स्वतन्त्रता उसकी निर्बाध है पर लेखनी का संयम उसे ज्ञात नहीं है । उसके विचारों की अभिव्यक्ति पर कोई रोक नहीं लगा सकता पर उसे अपने आप पर रोक लगाना भी पसन्द नहीं है । इस स्वतन्त्रता का अर्थ है मानसिक परतन्त्रता का उदय ।
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जनतंत्र का मूल आधार है स्वतन्त्रता और उसका मूल आधार है व्यक्ति का आत्मानुशासन जब कोई व्यक्ति अपने-आप पर अपना नियंत्रण रख सकता है, तभी वह स्वतन्त्रता की लौ प्रज्वलित कर सकता है । अधिनायकता के युग में भय और आतंक का राज्य होता है, इसलिए व्यक्ति के आत्मानुशासन का विशेष मूल्य नहीं होता । जनतंत्र के युग में अभय का राज्य होता है, इसलिए उसमें आत्मानुशासन का मूल्य बहुत बढ़ जाता है ।
हिन्दुस्तान दुनिया का सबसे बड़ा जनतंत्र है । उसके नागरिकों का आत्मानुशासन कैसा है, इस प्रश्न पर चाहे अनचाहे दृष्टि जा टिकती है। इसका उत्तर जो मिलता है, वह सन्तोष नहीं देता । शासनतंत्र के प्रमुख लोगों में सर्वाधिक आत्मानुशासन होना चाहिए पर वह नहीं है । वे अपने पद का लाभ भी उठाते हैं । पक्षपात की भी उनमें कमी नहीं है । अपने
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