Book Title: Tat Do Pravah Ek
Author(s): Nathmalmuni
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh
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५२ । तट दो : प्रवाह एक
गन्धवर्णवन्तः' माना जाय और उन्हीं में रूपादि की रसादि के साथ व्याप्ति स्वीकार की जाय तो इसमें क्या हानि है ? ऐसा होने पर प्रथम भेदरूप जीवों को तत्त्वार्थ-सार के कथनानुसार (८-३२) 'ऊर्ध्व गौरव धर्माणः'
और द्वितीय भेदरूप पुद्गलों को 'अधो गौरव धर्माणः' कहना भी तब निरापद हो सकता है। अन्यथा, अपौद्गलिक में गौरव का होना नहीं बनता। गुरुता-लघुता यह पुद्गल का ही परिणाम है।
८. यदि पुद्गल मात्र को स्पर्श-रस-गन्ध-वर्ण इन चार गुणों वाला माना जाय-उसी को मूर्तिक कहा जाय और जीव में वर्ण गुण भी न मानकर उसे अमूर्तिक स्वीकार किया जाय तो ऐसे अपौद गलिक और 'अमूर्तिक जीवात्मा का पौद्गलिक तथा मूर्तिक कमों के साथ बद्ध होकर विकारी होना कैसे बन सकता है ? इस प्रकार के बन्ध का कोई भी दृष्टान्त उपलब्ध नहीं है। और इसलिए ऐसा कथन (अनुमान) अनिदर्शन होने से (आप्तपरीक्षा की 'ज्ञानशक्त्यैव निःशेषकार्योत्पत्तौ प्रभुः किल । सदेश्वर इति ख्याते नमानमानदर्शनम्' इस आपत्ति के अनसार) अग्राह्य ठहरता है-सुवर्ण और पाषाण के अनादि बन्ध का जो दृष्टान्त दिया जाता है वह विषम दृष्टान्त है और एक प्रकार से सुवर्ण-स्थानी जीव के पौद्गलिक होने को ही सूचित करता है। यदि ऐसा कहा जाय तो इस पर क्या आपत्ति खड़ी होती है ? ___६. स्पर्श-रस-गन्ध-वर्ण में से कोई भी गुण जिसमें हो उसे मूर्तिक मानने पर (स्पर्शो रसश्च गन्धश्च वर्णो मी मूर्तिसंज्ञकाः' आदि पंचाध्यायी २-६)
और जीव को वर्ण-गणे-विशिष्ट स्वीकार करने पर (जिसका कुछ अभ्यास 'शक्लध्यान' शब्द के प्रयोग से भी मिलता है) जीव भी मर्तिक ठहरता है और तब मूर्तिक जीव का मूर्तिक कर्मों के साथ बद्ध होकर विकारी होने में कोई बाधा नहीं आती। वह सजातीय-विजातीय-पुद्गलों का ही बन्ध ठहरता है, यदि ऐसा कहा जाय तो वह क्योंकर आपत्ति के योग्य हो सकता
१०. रागादिक को 'पौद्गलिक' बतलाया गया है (अन्ये तु रागाद्या: हेयाः पौद्गलिका अमी, पंचा० २-४५७) और रागादिक जीव के. अशुद्ध परिणाम हैं-बिना जीव के उनका अस्तित्व नहीं। यदि जीव पौद्गलिक
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