Book Title: Tat Do Pravah Ek
Author(s): Nathmalmuni
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 59
________________ जीव का अस्तित्व : जिज्ञासा और समाधान बालचन्दजी नाहटा को मैं लम्बी अवधि से जानता हं। पूनर्भवी आत्मा में उन्हें विश्वास नहीं है। फिर भी इस विषय की खोज में वे अपना समय लगाते हैं। आचार्यश्री तुलसी वि० २०२० का चातुर्मास जब लाडनूं में बिता रहे थे, तब वे वहां आए। उन्होंने मुझे 'अनेकान्त' (जून, १९४२) का एक पत्र दिया और कहा कि इस प्रश्नावली पर आप अपना अभिमत लिखें। मैंने उसे पढ़ा और कहा कि अभी मैं उत्तराध्ययन के सम्पादन-कार्य में बहुत व्यस्त हूं, इसलिए इस पत्र को अपने पास रख लेता हूं। समय पर लिख सकूँगा। लगभग डेढ़ वर्ष के बाद उस पर मैं अपना अभिमत लिख प्रस्तुत प्रश्नावली जुगलकिशोरजी मुख्तार की है। वे स्वतः तत्त्वविद् व्यक्ति हैं । उनके मन में कुछ प्रश्न उठे हैं जिन्हें उन्होंने जिज्ञासु भाव से प्रस्तुत किए हैं। तेईस वर्ष पुरानी प्रश्नावली पर लिखू, यह लगता कैसा ही है पर एक व्यक्ति ने चाहा, तब मेरा कर्तव्य हो गया कि उस पर कुछ लिखू । इस प्रश्नावली में दस प्रश्न हैं और वे परस्पर सम्बद्ध हैं । इसलिए मैं अविभक्त रूप से उनकी समीक्षा करना चाहूंगा। प्रश्नावली १. चैतन्य गुण विशिष्ट सूक्ष्मातिसूक्ष्म अखण्ड पुद्गल पिण्ड (काय) को यदि 'जीव' कहा जाय तो इसमें क्या हानि है—युक्ति से कौन-सी बाधा आती है ? २. जीव यदि पौद्गलिक नहीं है तो उसमें सौक्ष्म्य-स्थौल्य अथवा संकोच-विस्तार, क्रिया और प्रदेश परिस्पन्द कैसे बन सकता है ? ३. जीव के अपौद्गलिक होने पर आत्मा में पदार्थों का प्रतिबिम्बित होना--दर्पण तलवत् झलकना-भी कैसे बन सकता है ? क्योंकि प्रतिबिम्ब का ग्राहक पुद्गल ही होता है उसी में प्रतिबिम्ब-ग्रहण की अथवा Jain Education International For Private & Personal Use Only ___www.jainelibrary.org

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