Book Title: Tat Do Pravah Ek
Author(s): Nathmalmuni
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 53
________________ सह-अस्तित्व किसी युग में सारे मनुष्य 'आस्तिक और नास्तिक इन दो धाराओं में बंटे हुए थे । वर्तमान में सब लोग सह-अस्तित्व और असह-अस्तित्व की धारा में बंटे हुए हैं । अधिकांश देश सह-अस्तित्व, निःशस्त्रीकरण और समझौता-नीति में विश्वास करते हैं तथा युद्ध से घृणा करते हैं । कुछ देश असह-अस्तित्व और विवाद बढ़ाने में विश्वास करते हैं तथा युद्ध को अनिवार्य मानते हैं । जितने भी विग्रह, कलह या युद्ध होते हैं, वे सब निरपेक्षता से होते हैं। सामाजिक जीवन का मूल आधार सापेक्षता है । भौगोलिक सीमाओं से विभक्त होने पर भी सब मनुष्य एक ही समाज के अविभक्त अंग हैं । शरीर के अंगों की संस्थान - रचना और कार्य-प्रणाली जैसे भिन्न होती है, वैसे ही समाज के अंग-भूत मनुष्यों की संस्थान - रचना और कार्य - प्रणाली भिन्न होती है । भेद को ही सामने रखकर यदि एक अंग दूसरे से निरपेक्ष होता है, उसकी उपेक्षा करता है, तो अंगी स्वस्थ नहीं रहता । एक की क्षति का फल भोग समूचे अंगी को, दूसरी भाषा में सभी अंगों को करना पड़ता है । आज कोई एक देश दूसरे देश पर आक्रमण करता है, उससे निरपेक्ष व्यवहार करता है या उसकी उपेक्षा करता है तो उसकी प्रतिक्रिया एक छोर से दूसरे छोर तक होती है । वह प्रश्न अन्तर्राष्ट्रीय प्रश्न बन जाता है । अन्तर्राष्ट्रीयता का अर्थ ही सह-अस्तित्व है । उसका आधार है भेद और अभेद का समन्वय । विश्व में ऐसा कोई भी पदार्थ नहीं है, जो सर्वथा भिन्न हो या सर्वथा अभिन्न ही हो । भिन्नता और अभिन्नता की समन्विति ही पदार्थ का अस्तित्व है और वही वास्तविक सचाई है । असह-अस्तित्व का सिद्धान्त इसे झुठलाने का प्रयत्न है । पर वह सफल नहीं हो सकता । मनुष्य के अस्तित्व का आधार सह-अस्तित्व ही हो सकता है । असहअस्तित्व का सिद्धान्त एक मानसिक उन्माद है । एक दिन हिटलर इससे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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