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अस्तित्व का प्रश्न । २७
का ध्यान हमेशा विस्तार और प्रसार की ओर केन्द्रित रहता है। उपनिवेशवाद इसी मनोवृत्ति की देन है। शस्त्रीकरण और उपनिवेश दोनों एक ही स्रोत से फूटे हुए दो प्रवाह हैं । आदि में दोनों एक हैं, मध्य में दोनों विभक्त हो जाते हैं और अन्त में दोनों फिर मिल जाते हैं। राज-शक्ति का अपना महत्त्व है। पर उसे जितना असीम महत्त्व दिया जा रहा है उतना ही दिया जाता रहा तो निःशस्त्रीकरण की समस्या कभी नहीं सुलझेगी। विश्व-राज्य या अन्तर्राष्ट्रीय सरकार की स्थापना उपनिवेश और शस्त्रीकरण की बढ़ती हुई होड़ के अंत का एक महत्त्वपूर्ण कदम हो सकता है।
विभाजन उपयोगिता के लिए होता है पर उसकी जितनी रेखाएं खींची जाती हैं, उतनी ही दूरी बढ़ जाती है। विश्व-शान्ति के लिए यह बहुत अपेक्षित है कि इन विभाजन-रेखाओं को जितना संभव हो सके, उतना कम करने का प्रयत्न किया जाए।
यातायात के साधनों की अविकसित दशा में अनेक राष्ट्र, अनेक जातियां और शासन-प्रणालियां अपनी-अपनी परिधि में चलती थीं। आज के यातायात के विकसित साधनों ने दुनिया को बहत छोटा बना दिया है। उसकी दूरी सिमट गई है। परिधियां समाप्त हो गई हैं। इस नयी स्थिति में एक राष्ट्र, एक जाति और एक शासन-प्रणाली के सिद्धान्त का बहुत महत्त्व बढ़ गया है। इसका भविष्य बहुत उज्ज्वल दिखाई दे रहा है। इस कल्पना को मूर्त रूप देने में कम उलझनें नहीं हैं, किन्तु विभाजन की रेखाओं को मिटाए बिना उलझनों का अंत ही नहीं आ सकता तब उन-उन उलझनों को सुलझाने के सिवाय शान्ति के पक्ष में और चारा ही क्या है ?
विश्व-राज्य का सिद्धान्त भी मेरी दृष्टि में राजनीतिक सिद्धान्त है। शान्ति का आध्यात्मिक सिद्धान्त सह-अस्तित्व का विचार है। अनेक धाराएं भी सह-अस्तित्व का विकास होने पर एक धारा की भांति व्यवहार कर सकती हैं। किन्तु यह चार आना राजनैतिक पक्ष है और बारह आना आध्यात्मिक पक्ष है। और गहराई में उतरें तो अनुभव होगा कि यह सोलह आना आध्यात्मिक पक्ष है। इस पक्ष की पुष्टि के लिए आध्यात्मिक सिद्धान्तों को विकसित और पुष्ट करना आवश्यक है।
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