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अभय की शक्ति । २५
हमारे कर्म में जितना हस्तक्षेप करती है, उतना कोई व्यक्ति कर ही नहीं सकता। चीन ने भारत पर आक्रमण किया, यह स्थिति का स्वीकार है। भारत यदि अपने स्वतंत्र कर्म में संलग्न होता, वर्तमान के प्रति नितांत जागरूक होता तो वह ऐसा कर ही नहीं पाता। भारत का सशस्त्र प्रत्याक्रमण भी स्थिति का स्वीकार है। यह कोई स्वतंत्र कर्म नहीं केवल प्रतिक्रिया की प्रतिक्रिया है। हम कहते हैं कि क्रिया की प्रतिक्रिया होती है। पर वास्तव में हमें कहना चाहिए कि प्रतिक्रिया की प्रतिक्रिया होती है। स्थिति से दबे हुए जगत् में शुद्ध क्रिया होती कहां है ? मैं अपनी श्लाघा सुनकर फूलता हूं और अपनी निन्दा सुनकर म्लान होता हं, ये दोनों---फूलना और म्लान होना स्वतंत्र कर्म नहीं हैं, किन्तु प्रतिकर्म हैं। मैं ऐसा करके अपनी स्वतंत्र सत्ता का अनुभव नहीं करता किन्तु परिस्थिति का खिलौना बनता हूं। इस दशा में मैं अहिंसक का नाम रखकर भी अहिंसक नहीं हो सकता हूं।
हम लोग स्थिति के स्वीकार की दुनिया में खड़े होकर सशस्त्र प्रतिकार की बात सुनते हैं तब हमें वह असंभव लगती है। अपनी पूर्ण स्वतंत्रता की आस्था के जगत् में खड़े होकर हम देखें तो दिखेगी कि सुरक्षा वस्तु में नहीं अपने में है, शक्ति वस्तु में नहीं अपने में है। वस्तु में हम ही अपनी शक्ति को आरोपित करते हैं और हम स्वयं को उसके सामने शक्तिहीन अनुभव करते हैं।
अहिंसक प्रतिकार हमारी आस्था का प्रश्न है। हिंसा में निष्ठा है, वे शस्त्र-बल' को जगा रहे हैं। अहिंसा-निष्ठ व्यक्ति अभय को जगाएं। वह परमाणु बम से भी अधिक शक्तिशाली अस्त्र है। उसकी शक्ति की हम कोई कल्पना नहीं कर सकते। हमारे मन में भय होता है तभी हमारे पर कोई आक्रमण कर सकता है, शासन थोप सकता है और कुछ भी कर सकता है। हम अभय हो जाते हैं, हमें मृत्यु की असीम शक्ति प्राप्त हो जाती है, दुनिया की कोई भी शक्ति हमें आक्रान्त नहीं कर सकती। परशासित वही जाति होती है, जिसके पास अपना आस्था-बल नहीं होता।
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