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एशिया में जनतंत्र का भविष्य । ३१
पीछे है । किन्तु जनतन्त्र के लिए जिस मानवीय चेतना का विकास अपेक्षित है, वह एशिया में कम नहीं है । मानवीय स्वतंत्रता और समानता के संस्कार यहां चिर अतीत से पल्लवित होते रहे हैं। एशिया की आध्यात्मिक चेतना के साथ यदि किसी शासन-प्रणाली का समुचित योग हो सकता है तो वह लोकतंत्र ही है ।
जनतंत्र के विकास के लिए एशिया अत्यन्त उर्वर है । फिर भी सामयिक स्थितियों का विश्लेषण करते समय उसमें जनतंत्र के पल्लवन की भविष्यवाणी नहीं की जा सकती । इस संदेह की पृष्ठभूमि में तीन तत्त्व छिपे हैं :
१. प्रभुत्व - विस्तार की भावना २. गुटबन्दी
३. साम्प्रदायिक पक्षपात
बड़े राष्ट्र हैं, आर्थिक, राजनीतिक और वैज्ञानिक उपलब्धियों से सम्पन्न हैं । वे अपने प्रभुत्व का विस्तार चाहते हैं । इस आकांक्षा के आधार पर दो गुट बन गए हैं :
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१. साम्यवादी
२. असाम्यवादी
एशिया में दोनों प्रकार के राष्ट्र हैं और तीसरे प्रकार के भी हैंजो किसी गुट में नहीं हैं, तटस्थ हैं । हिन्दुस्तान दुनिया का सबसे बड़ा जनतन्त्र होने के साथ-साथ दुनिया का सबसे बड़ा तटस्थ राष्ट्र है ।
गुटों के बीच में शक्तिशाली तटस्थ राष्ट्रों का अस्तित्व सेतु का काम करता है । किन्तु राजनीति में सेतु की अपेक्षा अपने स्वार्थों की पूर्ति का महत्त्व कहीं अधिक है ।
अमरीका जनतंत्र की सुरक्षा या साम्यवाद के विस्तार को रोकने के लिए हर संभव प्रयत्न कर रहा है । क्या इस तथाकथित प्रचार में सचाई है ? पाकिस्तान अमरीकी गुट में है। सही अर्थ में वह जनतंत्री भी नहीं, साम्यवादी भी नहीं है । किन्तु अधिनायकतावादी है। उसने महान् लोकतंत्र को क्षत-विक्षत करने का शक्तिशाली प्रयत्न किया और उस अमरीका के शक्ति-संरक्षण में किया, जो जनतंत्र के विस्तार में सबसे अगुआ है ।
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