Book Title: Tat Do Pravah Ek
Author(s): Nathmalmuni
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 21
________________ १२। तट दो : प्रवाह एक उसने सोचा—'बह स्याम्', वह बहत हो गया। मनुष्य कभी जंगल में रहता था। उस स्थिति से ऊबकर वह गांव में आया। अब वह गांव में भी जंगल ला रहा है। नई दिल्ली में मैंने देखाएक कोठी जंगल से घिरी है, मनुष्य की जो चिरपरिचित आदत है, वह अभी नहीं छुटी है, इसीलिए वह गांव में भी जंगल ला रहा है। एक समय लोग दाढ़ी और मंछ रखते थे। बीच में सफाई का यग आया और अब पुनः दाढ़ी-मूंछ का युग आ रहा है । यह आवर्तन और प्रत्यावर्तन होता ही रहता है। सापेक्षता से ही समाज बनता है। समज और समाज में यही तो भेद है। पशुओं का समूह समज कहलाता है और समाज उन मनुष्यों का समूह होता है जिनमें सापेक्षता होती है। समाज' हो और सापेक्षता न हो, वह समाज नहीं, अस्थि-संघात मात्र है। समाज का आधार है परस्परावलम्बन, परस्पर-सहयोग । समाज में व्यवस्था का जन्म होता है । व्यवस्था भली-भांति चले इसलिए शासन आता है। सापेक्षता, व्यवस्था और शासनये तीन व्यवस्थाएं जहां हों, वहां दस आदमी मिलने पर भी समाज बन जाता है, अन्यथा लाख आदमी होने पर भी समाज नहीं बनता। दर्शन शब्द का अर्थ-विस्तार हुआ है । एक समय आत्मोपलब्धि और सत्य के साक्षात्कार को दर्शन कहा जाता था। द्रष्टा की प्रत्यक्ष अनुभूति के लिए दर्शन शब्द व्यवहृत होता था पर आज परोक्षानुभूति में भी वह व्यवहृत होने लगा है। व्यक्ति सामाजिक होने पर भी व्यक्ति है ही, इसलिए वह समाज में रहते हुए भी निरपेक्षता चाहता है और शासनहीन राज्य की कल्पना करता है, यह अस्वाभाविक भी नहीं है । निरपेक्षता से मुक्त सापेक्षता और सापेक्षता से मुक्त निरपेक्षता हो ही नहीं सकती। जो कोई भी सत् है, वह सत्-प्रतिपक्ष है । प्रकाश और अन्धकार, न्याय और अन्याय, आरोग्य और रोग ये, सब सत-प्रतिपक्ष हैं। अकेला शब्द शून्य होता है। सामाजिक प्राणी सर्वथा निरपेक्ष हो, ऐसा हो ही नहीं सकता। और यह भी असम्भव है कि व्यक्ति का स्वतंत्र अस्तित्व हो और वह सर्वथा सापेक्ष ही हो । निरपेक्षता को न जानने वाला शान्ति का मर्म जान ही नहीं पाता । अहिंसा, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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