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તપશ્ચર્યા
५४२४ -६
१३. एगमप्पाणं संपेहाए धुणे कम्मसरीरगं ।
- आचारांग १/४/३ आत्मा को शरीर से पृथक् जानकर भोगलिप्त शरीर की तपस्या के द्वारा धु डालो । १४. छन्दं निरोहण उवेइ मोक्खं ।
- उत्तराध्ययन ४/८ इच्छा निरोध-तप से मोक्ष प्राप्त होता है । १५. सक्खं खु दीसइ तवो विसेसो, न दीसई जाइविसेस कोई ॥
- उत्तराध्ययन १२/३७ तप की विशेषता तो प्रत्यक्ष दिखलाई देती है, किन्तु जाति की तो कोई विशेषता नजर नहीं आती।
तवो जोई जीवो जोइठाणं । जोगा सुया सरीरं कारिसंगं । कम्मेहा संजमजोग सन्ती । होमं हुणामि इसिणं पसत्थं ॥
- उत्तराध्ययन १२/४४ तप ज्योति अर्थात् अग्नि है, जीव ज्योति समान है, मन, वचन, काया के योग .... - आहुति देने की कढ़छी है, शरीर कारीपांग - अगनि प्रज्वलित करने का कारण है, कर्म जलाये जाने वाले इंधन है, संयम योग शांति पाठ है । में इस प्रकार का यज्ञ करता हूँ, जिसे ऋषियों
ने श्रेष्ठ बताया है। १७. जहा तपस्वी धुणते तवेणं, कम्मं तहा जाण तवोण्णुमंता ।
- बृहदकल्पभाष्य ४४०१ जिस प्रकार तपस्वी तप के द्वारा अपने कर्मों को गुन मानता है, वैसे ही तप का अनुमोन करने जाता है।