________________
તપશ્ચર્યા
પ્રકરણ - ૬
१८. श्रद्धया परया तप्तं तपस्तत्रिविघं नरैः। अफलाकाक्षिभियुक्तः सात्त्विकं परिचक्षते ॥ १७ ॥
- भगवद्गीता ११ मन, वाणी और शरीर इन तीनों का तप यदि फल की आकांक्षा किए बिना परम श्रद्धापूर्वक किया जाए तो वह सात्त्विकतप कहलाता है। सत्कार मान पूजार्थं तपो दम्मेन चैव तत् । क्रियते तदिह प्रोक्तं राजसं चलमध्रु बम् ॥ १८ ॥ जो तप सत्कार, मान और पूजा के लिए तथा अन्य किसी स्वार्थ के लिए पाखण्ड भाव से किया जाता
है, वह अनिश्चित तथा अस्थिर तप होता है, उसे 'राजस' तप कहते है। २०. मूढग्राहेणात्मनो यत्पीडया क्रियते तपः । परस्योत्सादनार्थ वा तत् तामससमुह्हृतम् ॥ १९ ॥
- भगवद्गीता १७ जो तप मूढ़तापूर्वक, हठ से तथा मन, वचन और शरीर की पीड़ा के सहित अथवा दूसरे का अनिष्ट
करने के लिए किया जाता है, वह 'तामस' तप कहा जाता है। २१. तपो मूलभिदं सर्वं दैव मानुपकं सुखम् ।
- मनुस्मृति ११/२३५ मनुष्यों और देवताओं के सभी सुखों का मूल तप है। २२. ब्राह्मणस्य तपो ज्ञानं तपः क्षत्रस्य रक्षणम् ।
- मनुस्मृति ११/२३६ ब्राह्मण का तप ज्ञान है और क्षत्रिय का तप दुर्बल की रक्षा करना है। २४. यद् दुस्तरं यद् दुरापं यत् दुर्गं यच्च दुष्करम् । सर्वंतत् तपसा साध्यं तपोहि दुरतिक्रमम् ॥
- मनुस्मृति ११/२३९ जो दुस्तर है, दुष्प्राप्य है (कठिनता से प्राप्त होने जैसा है) दुर्गम है, और दुष्कर है, वब सब तप से साधा जाता है। साधना क्षेत्र में तप एक दुर्लघन शक्ति है, अर्थात् तप से सभी कठिनताओं पर विजय प्राप्त की जा सकती है।