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તપશ્ચર્યા
प्र७२
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हैं शल्प शुल चुभते जब पाद में जो, दुर्वेदनानुभव पूरण अङ्ग में हो । ज्यों ही निकाल उनको हम फेंक देते, त्यों ही सुशीघ्र सुखसिंचित स्वास लेते ॥ १३ ॥ जो दोष को प्रकट ना करता, छुपाता, मायाभिभूत यति भी अति दुःख पाता । दोषाभिभूत मन को गुरु को दिखाओ निःशल्य हो विमल हो सुख शांति पाओ ॥ १४ ॥ आत्मीय सर्व परिणाम विराम पाने, वे साम्य के सदन में सहसा सुहावें । डुबो लखो बहुत भीतर चेतना में आलोचना बस यही जिन देशना में ॥ १५ ॥ प्रत्यक्ष-सम्मुख सुधी गुरु सन्त आते, होना खड़े, कर जुड़े शिर को झुकाते । दे आसनादि करना गुर भक्ति सेवा, माना गया विनय का तप वो सदैवा ॥ १६ ॥ चारित्र, ज्ञान, तप दर्शन, औपचारी, ये पांच हैं विनय भेद, प्रमोदकारी । धारों इन्हें विमल निर्मल जीव होगा, दुःखावसान, सुख आगम शीघ्र होगा ॥ १७ ॥ है एक का वह समादर सर्वका है, तो एक का यह अनादर विश्वका है । हो घात मूल पर तो द्रुम सुखता है, दो मूल में सलिल, पूरण फूलता है ॥ १८ ॥ है मुल ही विनय आर्हत शासनों का, हो संयमी विनय से घर सद्गणों का । वे धर्म-कर्म तप भी उनके वृथा है. जो दूर हैं विनय से सहते व्यथा हैं ॥ १९ ॥