Book Title: Tapascharya
Author(s): Niranjanmuni
Publisher: Ajaramar Active Assort

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Page 569
________________ તપશ્ચર્યા सद् वाचना प्रथम है फिर पूछना है,, है आनुपेक्ष क्रमशः परिवर्तना है । धर्मोपदेश सुखदायक है सुधा है, स्वाध्यायरूप तप पावन पंचधा है ॥ २५ ॥ आमूलतः बल लगा विधि को मिटाने, पै ख्याति लाभ यश पूजन को न पाने । सिद्धान्त का मनन जो करता कराता, पा तत्त्व बोध बनता सुख धाम, धाता ॥ २६ ॥ होते नितान्त समलेकृत गुप्तियों से, तल्लीन भी विनय में मृदु वल्लियों से । एकाग्र मानस जितेंद्रिय अक्ष-जेता, स्वाध्याय के रसिक वे ऋषि साधुनेता ॥ २७ ॥ सद्ध्यान सिद्धि जिन आगम ज्ञान से हो । तो निर्जरा करम की निज ध्यान से हो । हो मोक्ष लाभ सहसा विधि निर्जरा से, स्वाध्याय में इसलिए रम जा !! जरा से ॥ २८॥ स्वाध्याय सा न तप है नहिं था न होगा, यों मानना अनुपयुक्त कभी न होगा । सारे इसे इसलिए ऋषि सन्त त्यागी, धारे, बनें विगतमोह, बनें विरागी ॥ २९ ॥ जो बैठना शयन भी करना तथापि, चेष्टा न व्यर्थ तन की करना कदापि । व्युत्सर्ग रूप तप बै, वइधि की तपाता पीताभ हेम सम आतम को बनाता ॥ ३० ॥ कायोत्सर्ग तप से मिटती व्यथायें, हो ध्यान चित स्थिर द्वादश भावनायें । काया निरोग बनती मति जाइय जाती, संत्रास सौख्य सहने उर शक्ति आती ॥ ३१ ॥ ૫૨૬) પ્રકરણ -- ૬

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