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તપશ્ચર્યા
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ना इन्द्रियाँ शिथिल हो, मन हो न पापी, न रोगकानुभव काय करे कदापि । होती वही अनशना, जिससे मिली हो, आरोग्य पूर्ण नव चेतनता खिली हो ॥ ६ ॥ उत्साह-चाह-विधि राह पदानुसार, आरोग्य-काल-निज-देह बलानुसार । ऐसा करें अनशना ऋषि साधुसारे, शुद्धात्म को नित निरंतर वे निहारें ॥ ७ ॥ लेते हुए अशनको उपवास साधे, जो साधु इन्द्रियजयी निज को अराधे । हो इन्द्रियाँ शमित तो उपवास होता, धोता कुकर्म मलको, सुखको सँजोता ॥ ८ ॥ मासोपवास करले, लघधी यमी में, ना हो विशुद्धि उतनी, जितनी सुधी में । आहार नित्य करते फिरभी तपस्वी, होते विशुद्ध उरमें, श्रुत में यशस्वी ॥ ९ ॥ जो एक एक कर ग्रास घटा घटाना,
और भूख से अशन को कम न्यून पाना । ऊनोदरी तप यही व्यवहार से है, ऐसा कहे गुरु, सुदूर विकार से हैं ॥ १० ॥ दाता खड़े कलश ले हँसते मिले तो, लेऊँ तभी अशन प्राङ्गण में मिलेतो । इत्यादि नेम मुनि ले अशनार्थ जाते, भिक्षा क्रिया यह रही गुरुयों बताते ॥ ११ ॥ माँ को यथा तनुज, कार्य अकार्य को भी,, है सत्य, सत्य कहता, उर पाप जो भी । मायाभिमान तज, साधु तथा अघों की गाथा कहें, स्वगुरू को, दुखदायकों की ॥ १२ ॥