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તપશ્ચર્યા
તપ પદની સ્તુતિ
ઇચ્છારોધન તપ તે ભાખ્યો, આગમ તેહનો સાખીજી દ્રવ્ય-ભાવસે દ્વાદશ દાખી જોગ સમાધિ રાખીજી ચેતન નિજ ગુણ પરિણિત પંખી તેહી તપ ગુણ દાખીજી सब्धि सहसनो अरग हेजी, ईश्वर से भुख भाजी....१
२८ तपसूत्र ( अ ) बाह्यतप
जो ब्रह्मचर्य रहना, जिन ईश पूजा, सारीकषाय तजना, तजना न ऊर्जा । ध्यानार्थ अन्न तजना "तप" ये कहाते, प्रायः सदा भविकलोग इन्हें निभाते ॥ १ ॥
है
मूल में द्विविध रे ! मुक्ति दाता,
जो अंतरंग बहिरंग तया सुहाता । हैं अंतरंग तप के छह भेद होते, हैं भेद बाह्य तप के उतने हि होते ॥ २ ॥
“ऊनोदरी“ “अनशना" नित पाल रे ! तू, "भिक्षाक्रिया" रसविमोचन मोक्ष हेतु । "संलीनता " दुख निवारक कायक्लेश, ये बाह्य के छह हुए, कहते जिनेश ॥ ३ ॥
जो कर्म नाश करने समयानुसार,
है त्यागता अशनका, तन को सँवार ।
साधू वही अनशना तप साधता है, होती सुशोभित तभी जग साधुता है ॥ ४ ॥
आहार अल्प करते श्रुत बाध पाने,
वे तापसी समय में कहलाय शाने । भी बिना श्रुत उपोषण प्राण खोना, आत्मवबोध उससे न कदापि होना ॥ ५ ॥
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પ્રકરણ
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