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તપશ્ચર્યા
३२ए। -६
७. नन्नत्थ निज्जरट्ठयाए तवमहिढेजा ।
- दशवैकालिक ६/४ केवल कर्म-निर्जरा के लिए तपस्या करना चाहिए इहलोक परलोक व यशकीर्ति के लिए नहीं। सउणी जह पंसुगुं डिया, विहूणिय धंसयइ सियं रयं । एवं दविओवहाणवं कम्मं खवइ तवस्सि माहणे ॥
- सूत्रकृतांग २/१/१५ जिस प्रकार पक्षी अपने परों की फड़फड़ा कर उन पर लगी धूल को जाड़ देता है उसी
प्रकार तपस्या के द्वारा मुमुक्ष अपने कृतकर्मो का बहुत शीघ्र ही अपनगन कर देता है । ९. न हु वालतवेण मुक्तुति ।
- आचारागं नियुक्ति २/४ अज्ञान तप से कभी मुक्ति नही मिलती है । १०. जह खलु मइलं वत्यं मु.... उदगाईएहिं दव्वेहि । एवं भावुवहाणेणं सुज्मए कम्मट्ठविहं ॥
- आचारांग नि०२८२ जिस प्रकार जल आदि बोधक द्रव्यों से मनिन वस्त्र भी शुद्ध हो जाता है, उसी प्रकार
आध्यात्मिक तप साधना द्वारा आत्मा ज्ञानाणादि अष्टविप कमं मन से मुक्त हो जाता है । ११. तवेसुवा उत्तमं बंभचेरं ।
- सूत्रकृतांग ६/२२ अर्थात्-तपों में सर्वोत्तम तप है ब्रह्मचयं । १२. असिधारा गमणं चेव, दुक्करं चरिउं तवो ।
- उत्तराध्ययन १९/३७ अर्थात् - तप का आचरण तलवार की धार पर चलने के समान दुष्कर है।