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તપશ્ચર્યા
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प्रायः का अर्थ लोक - जनता हे एवं चित्त का अर्थ - मन है। जिस क्रिया के द्वारा जनता के मन में
आदर हो, उस क्रिया को प्रायश्चित कहते है। ४५. पायच्छित्त' करणेणं पाव कम्म वितोहिं जणयइ, निरइयारे वावि भवइ । सम्मं च णं पायच्छितं पट्ठिवज्जमाणे मग्गं च नग्गं फलं च विसोहेइ आचारं च आचतारफलं च आरोहेइ।
- उत्तराध्ययन सूत्र २६/१६ प्रायश्चित करने से जीव पापों की विशुद्धि करता है, एवं निरतिचार निर्दोष बनता है। सम्पण प्रायश्चित प्रतीकार करने से दोष ........... के ज्ञान को निषेध करता है तथा चारित्रफल-मोक्ष की
आराधना करता है। ४६. उद्घरिय सव्वसल्लो, आलोइय-निदिओ गुरु सगासे । होइ अतिरेगलहुओ, ओहरियभारोव्व भारवहो ।
- ओघनियुक्ति ८०३ जो साधक गुरुजनों के समक्ष मन के समस्स शल्यों (कांटों) को निकाल कर आलोचना, निन्दा (आत्मनिन्दा) करता है, उसकी आत्मा उसी प्रकार हल्की हो जाती हैं, जैसे
सिर का भार उतार देने पर भार वाहक । ४७. जह वालो जंपंतो, कज्जमकज्जं च उज्जुयं भवइ । तं तह आलोएज्जा, माया - मयविप्पमुक्को उ॥
- ओघनियुक्ति ८०१ बालक को जो भी उचित अनुचित कार्य कर लेता है, वह सब सरल भाव से कह देता है। इसी प्रकार साधक को भी गुरुजनों के समक्ष दंभ और अभिमान से रहित यथाथं आत्मालोचना करनी चाहिये। आलोचणापरियाओ, सम्भं संपट्ठिओ गुरुसमासं । जइ अंतरो उ कालं, करेज्ज आराहओ तह धि ॥
- आवश्यकनियुक्ति ४ कृत पापों की आलोचना करने की भावना से जाता हुआ व्यक्ति यदि बीच में मर जाये तो भी वह आराधक है।
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