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તપશ્ચર્યા
પ્રકરણ - ૬
५५. नच्चा नमइ मेहावी।
- उत्तराध्ययन सूत्र १/४५ बुद्धिमान् ज्ञान प्राप्त करके नभ हो जाता है। ५६. विणओघ येयस्स इह परलोगे वि विज्जाओ फलं पयच्छंति ।
- निर्शीथचूणि १३ विनय मोक्ष की विज्ञाए इहलोक एवं परलोक-..... ही फल प्रदान करती है। वैयावृत्य : ५७. वैयावृत्यम्-भक्तादिभिधर्मोपग्रहकारि वस्तुभिरुपग्रह-करणे ।
- स्थानांग टीका ५/१ घने से सहारा देने वाली आहार आदि वस्तुओं द्वारा उपग्रह-सहायता करना 'वैयावृत्य' कहलाता है। वैयावृत्य शब्द सेवा के अर्थ का प्रतीक है। दसविहे वैयावच्चे पण्णते तं जहा-आयरियवेयावच्चे, उवज्झाय वेयावच्चे, थेर वेयावच्चे, तवस्सि वेयावच्चे, गिलाण वेयावच्चे, सेह वेयावच्चे, कुल वेयावच्चे, गळ वेयावच्चे, संघ वेयावच्चे, साहम्मिय वेयावच्चे।
- स्थानागंसूत्र १०/४४९ आचार्य की वैयावृत्त्य(सेवा) उपाध्याय की वैयावृत्य, स्थविर की वैयावृत्य, तपस्वी की वैयावृत्य, नवदीक्षित की वैयावृत्य, कुल की वैयावृत्य, संघ की वैयावृत्य, सहधर्मी की वैयावृत्य । इन दसों की
यथायोग्य सेवा भक्ति करना वैयावृत्य तप कहा जाता है। ५९. वैयावच्चेणं तित्थयरनाम गोयं कम्मं निबंधेइ ।
- उत्तराध्ययन २९/४३ आचार्य आदि की वैयावृत्य (सेवा) करने से जीव तीर्थंकर नाम गोत्र कर्म का उपार्जन करता है। आहार, पानी, आसन आदि से लेकर औषधि आदि समयोचित सेवा सरंक्षण आदि सत् क्रियाएं वैयाव-त्य तप
में आती हैं। ६०. असंगिन्हीय परिजणस्स संगिण्हणयाए अब्भुट्टेव्वं भवइ ।
-स्थानाग८ प्रयाश्चित-प्रसजण जनों की आश्रय एवं सहयोग देने के लिए सदा आपर रहो।