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તપશ્ચર્યા
८६.
८७. व्युत्सगहिं यत्कायचेष्टा निरोधतः ।
२.
काउसग्गेणं तीय पडुप्पन्नं पायच्छितं विसोहेइ, विसुद्धपायच्छिते य जीवे निव्वुयहियए ओहरियभारुव्व भारवहे पसत्थज्झाणोवगए सुहं सुहेणं विहरइ ।
८८. इन्द्रियमनसोर्नियमानुष्ठानं तपः ।
३.
उत्तराध्ययन २९/१२
कायोत्सर्ग (व्यान) करने से जीव अतीत एवं वर्तमान के दोषों की विशुद्धि करता है और प्रायश्चित के द्वारा सिर पर से भार उतर जाने से भारवाहकवत् हल्का सद्-ध्यान में रमण करता हुआ सदा सुखपूर्वक विचरण करता है ।
४.
शरीर की चपलताजन्य चेष्टाओं का निरोध करना व्युत्सर्ग तप है ।
पांच इन्द्रिय (स्पर्शन, रसना - घ्राण - चक्षु - श्रोत्र) और मन को वश में करना या बढ़ती हुई लालसाओं को रोकना तप है ।
वैदिक वाङ्मय में 'तप'
१. तपो वाऽग्निस्तपी दीक्षा ।
• स्थानांग टीका ६
—
तपो मे प्रतिष्ठा ।
- नीतिवाक्यामृत १/२२
शतपथ ब्राह्मण ३/४/३/३
तप एक अग्नि है, तप एक दीक्षा है।
तपसा वै लोकं जयन्ति ।
- शतपथ ब्राह्मण ३/४/४/२७ तप के द्वारा ही सच्ची विश्वविजय प्राप्त होती है ।
પ્રકરણ ६
- तैत्तिरीय ब्राह्मण ३/७/७
—
तप मेरी प्रतिष्ठा है, मेरी स्थिरता का हेतु है ।
श्रेष्ठो ह वेदस्तपसोऽधिजातः
- गोपथब्राह्मण १/१/९
श्रेष्ठ ज्ञान तप के द्वारा ही प्रकट होता है ।
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