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તપશ્ચર્યા
પ્રકરણ - ૬
८३. भा मुज्झह ! मा रज्जइ ! मा दुस्सह ! इट्ठ ! निट्ठअढेसु ।
थिरमिच्छह जइ चित्तं, विचित्तं, विचिंतझाणापसिद्धीए । मा चिट्ठह ! मां जंपह! मा चिंतह ! किं वि जेण होई थिरो। अप्पा अप्पंमिरओ, इणमेव परं बवे झाउं ।
- द्रव्य संग्रह हे साधक! विचित्र ध्यान की सिद्धि से यदि चित्त को स्थिर करना चाहता है, तो इष्ट अनिष्ट पदार्थों में मोह, राग और द्वेप मत कर । किसी भी प्रकार की चेष्टा, जल्पन न चिन्तन मत कर, जिससे मन, स्थिर
हो जाये । आत्मा का आत्मा में रक्त हो जाना ही उत्कृष्ट ध्यान है। ८४. जितेन्द्रियस्य धीरस्य प्रशान्तस्य स्थिरात्मनः । सुखासनस्य नासाग्र-न्यस्तनेत्रस्य योगिना ॥
- तत्त्वानुशासन ३७ ध्यान के इच्छुक योगी की योग के आठ अंगों की अवश्य जानना चाहिए, यथा - १. ध्याता – इन्द्रिय और मन का निग्रह करने वाला। २. ध्यान – इष्ट विषय में लीनता । ३. – फल-संवर-निर्जरा रूप। ४. - ध्येय-इष्ट देवादि। ५. - यस्य-ध्यान का स्वामी। ६.- यत्र-ध्यान का क्षेत्र । ७. - यदा-ध्यान का समय । ८. - ध्यान की विधि। झाण जोगं समाहटु कायं विउसेज्ज सव्वसो।
- सूत्रकृतांग ८/२६ ध्यान योग का अवलम्बन कर देहभाव का सर्वतोभावेन विसर्जन करना चाहिए। कायोत्सर्ग (व्युत्सर्ग)