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તપશ્ચર્યા
७३.
७४.
७५.
७६.
७७.
७८.
यस्य चित्तं स्थिरीभूतं स हि ध्याता प्रशस्यते ।
- ज्ञानार्णव पृ. ८४
जिसका चित्त स्थिर हो, वही ध्यान करने वाला प्रशंसा के योग्य है ।
वीतरागो विमुच्यते, वीतरागं विचिन्तयन् ।
- योगशास्त्र ९/१३
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वीतराग का ध्यान करता हुआ योगी स्वयं वीतराग होकर कर्मों से या वासनाओं से मुक्त हो जाता है ।
उपयोगे विजातीय- प्रत्ययाव्यवधानभाक् । शुभैकप्रत्ययो ध्यानं, सूक्ष्माभोगसमन्वितम् ॥
- द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका १८/११
मोक्षः कर्मक्षयादेव स चात्मज्ञानतो भवेत् । ध्यानसाध्यं मतं तच्च, तद्ध्यानं हितमात्मनः ॥
स्थिर दीपक की ली के समान मात्र शुभ लक्ष्य में लीन और विरोधी लक्ष्य के व्यवधान रहित ज्ञान, जो सूक्ष्म विपयों के आलोचन सहित हो, उसे ध्यान कहते हैं ।
- योगशास्त्र ४ / ११३
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वैराग्यं तत्वविज्ञानं, नैर्ग्रन्थ्यं समचितता । परिग्रहो जपश्चेति, पञ्चैते ध्यानहेतवः ॥
संगत्यागः कषायाणां, निग्रहो व्रतधारणम् ।
मनोऽक्षाणां जपश्चेति, सामग्री ध्यानजन्मनि ॥
कर्म के क्षय से मोक्ष होता है, आत्म ज्ञान से कर्म का क्षय होता है और ध्यान से आत्म ज्ञान प्राप्त होता है । अतः ध्यान आत्मा के लिये हितकारी माना गया है।
પ્રકરણ ६
- तत्वानुशासन ७५
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परिग्रह का त्याग, कषाय का निग्रह, व्रत धारण करना तथा मन और इन्द्रियों को जीतना - ये सव कार्य ध्यान की उत्पत्ति में सहायता करने वाली सामग्री है।
- बृहद्रव्यसंग्रह संस्कृत टीका, पृ० २८१
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