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તપશ્ચર્યા
७९.
८१.
८२.
१. वैराग्य, २. तत्त्वविधान, ३. निर्ग्रन्थता, ४. समचित्तता, ५. परिग्रहजय ये ध्यान के हेतु है ।
स्वात्मानं त्वात्मनि त्वेन, ध्याते स्वस्मै स्वतो यतः । षट्कारकमयस्तस्माद्, ध्यानमात्मैव निश्वयात् ॥
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- तत्त्वानुशासन ७४
८०. निश्चयाद् व्यवहाराच्च, ध्यानं द्विविधमागमे ।
स्वरूपालम्यनं पूर्व, परालम्बनमुत्तरम् ॥
तत्त्वानुशासन ९६
निश्चय दृष्टि से और व्यवहार दृष्टि से ध्यान दो प्रकार का है। प्रथम में पर वस्तु का आलम्बन है ।
आत्मा का आत्मा में, आत्मा द्वारा, आत्मा के लिये, आत्मा से ही ध्यान करना चाहिये । निश्चयनय में षट्कारकमय - यह आत्मा ही ध्यान है ।
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स्वाध्यायाद्र ध्यानमध्यास्तां, ध्यानात् स्वाध्यायमानेत् । ध्यान - स्वाध्यायसंपत्त्या, परमात्मा प्रकाशते ॥ यथान्यासेन शास्त्राणि, थराणि सुमहान्त्यपि ॥ तथाश्यानापिसुस्थैर्य, लभतेऽभ्यासवर्तिनाम् ॥
• तत्त्वानुशासन
પ્રકરણ
उपश्चान्तो वितेन्द्र ध्यानं, ध्यान श्रन्ती विशेज्जपम् । अन्पां श्चान्तं पठेत् स्तोत्र - मित्येय गुरुभिः स्मृतम् ॥
. होने पर ध्यान एवं ध्यान से पर खोड पड़ना चाहिए। ऐसे ही हेतु न कहा है।
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स्वाध्याय से ध्यान का अभ्यास करना चाहिये और ध्यान से स्वाध्याय को चरितार्थ करना चाहिये । स्वाध्याय एवं ध्यान की संप्राप्ति से परमात्मा प्रकाशित होता - अर्थात् अपने अनुभव में लाया जाता है। । अभ्यास से जैसे महान भारत स्थिर हो आते है, उसी प्रकार अभ्यास करने वालों का ध्यान स्थिर हो जाता है।
स्वरूप का आलम्बन हे एवं दूसरे
.. पृ. ७२, श्लोक ३
. होने पर जाप करना चाहिये तथा दोनो से बल होने