Book Title: Tao Upnishad Part 01 Author(s): Osho Rajnish Publisher: Rebel Publishing House PunaPage 30
________________ Download More Osho Books in Hindi Download Hindi PDF Books For Free जैसे ही विचार गिर जाते हैं और निर्विचार चेतना का जन्म होता है, आप एक बिलकुल ही और लोक में प्रवेश करते हैं। उस लोक में इस जगत की कोई भी चीज संगत नहीं है। कोई भी चीज, कोई भी नियम संगत नहीं है। इस जगत में जो जड़ दिखाई पड़ रहा है, वह वहां चैतन्य हो जाएगा। इस जगत में जो मृत दिखाई पड़ रहा है, वह वहां जीवंत हो जाएगा। इस जगत में जहां दरवाजे थे, वहां दीवारें हो जाएंगी। इस जगत में जहां दीवारें थीं, वहां दरवाजे हो जाएंगे। इस जगत का कोई भी प्रश्न संगत नहीं है। इसलिए हम जो-जो प्रश्न उठाए चले जाते हैं, उनकी कोई अर्थवत्ता नहीं है। प्रश्न इसीलिए अर्थपूर्ण हो सकते हैं कि हम उस लोक में कैसे प्रवेश करें? लेकिन अगर आप सोचते हों कि इसी लोक में बैठे हुए हम उस लोक की बातों को प्रश्नों से समझ लेंगे, तो आप गलती में हैं। वह संभव नहीं हो सकता है। आज इतना ही। और पूछना है कुछ? अच्छी बात है। प्रश्न: भगवान श्री, कल आपने बताया कि अगर भगवान मिल गया तो सहज पता लग जाएगा कि यह तो मैंने देखा है। दूसरी बात यह बताई कि कुछ नहीं है, और जो है, वही है। और आज भी बताया कि पदार्थ और चैतन्य दो नहीं, पर एक ही है, एकरस है। तो वह भगवान जो एकरस है, वही स्थिति है कि समथिंग बियांड? दोनों ही बातें हैं। वह जो एकरस स्थिति है, वह तो है ही भगवान। लेकिन वह जो एकरस स्थिति है, वह सदा ही बियांड और बियांड फैलती चली जाती है। वह कहीं समाप्त नहीं होती। समझें कि मैं एक सागर में कूद पड़ा। तो मैं यह कह सकता हूं कि मैं सागर में उतर गया, लेकिन फिर भी यह नहीं कह सकता कि पूरे सागर में उतर गया। इतना ही कह सकता हूं, एक किनारे से एक कोना मैंने स्पर्श कर लिया। सागर तो बियांड है। जहां मैं खड़ा हूं, वहां एकाध-दो लहर मुझे छू जाती हैं। सागर तो अनंत है। तो जब कोई परमात्मा को जानता है, तो ऐसा ही जानता है कि यही सब, जो है, वही परमात्मा है। लेकिन ऐसा भी जानता है साथ ही साथ कि जितना मैं जान रहा हूं, उतना ही नहीं, और भी बियांड, और भी पार, वह और भी पार है। और कितना ही जान ले कोई, यह बियांडनेस खतम नहीं होती; यह बनी ही रहती है। यही उसकी मिस्ट्री है; यही उसका रहस्य है। कितना ही कोई जान ले, कितना ही दूर यात्रा कर आए, फिर भी वह पाता है कि दूसरे किनारे का कोई भी पता नहीं है। जिस किनारे से हम उतरे थे, उसका भर पता है। कितना ही दूर कोई चला जाए, दूसरे किनारे का कोई पता नहीं है। और एक मजे की घटना घटती है, जो समझ में न आएगी। जब वह लौट कर आता है, तो पाता है, जिस किनारे को छोड़ा था, वह भी अब वहां नहीं है। ऐसा नहीं है कि एक किनारा फिर बचा रहता है; वह तो तभी तक है, जब तक आप किनारे पर खड़े हैं। जब आप कूद गए सागर में, तो दूसरे किनारे का तो कभी पता नहीं लगता; लौट कर अगर अपने किनारे को भी खोजा, कि जहां खड़े थे वह जगह, अब वह भी नहीं है। जो है, वही परमात्मा है। लेकिन जो है, वह सदा ही पार और पार, पार और पार फैलता चला जाता है। हम जितने भी दूर जाते हैं, हम पाते हैं कि वह और पार फैला हुआ है, और पार फैला हुआ है। और ऐसी कोई जगह कोई कभी नहीं पहुंच पाया, जहां से उसने कहा हो, बस यहां तक है! और ऐसी जगह कोई कभी नहीं पहुंच पाएगा। वह लॉजिकली असंभव है। क्योंकि अगर कोई आदमी किसी ऐसी जगह पहुंच जाए और कहे कि यह आ गया आखिरी पड़ाव, यहां तक ही परमात्मा है, तो बड़ा सवाल यह उठेगा कि इसके बाद क्या है? बाद तो कुछ होना ही चाहिए। कोई भी सीमा अकेले नहीं बनती; सीमा बनाने के लिए दूसरे की जरूरत पड़ती है। आपके घर की जो फेंसिंग है, वह आपका घर ही अकेला हो तो मुश्किल हो जाए बनाना। वह तो पड़ोसी के घर की वजह से बन पाती है। अगर पार कछ दसरा न हो, तो सीमा नहीं बन सकती। और परमात्मा अकेला ही है। यानी जो अकेला है, उसी को हम परमात्मा कह रहे हैं; जो अस्तित्व है, वही है। तो उसको हम कभी ऐसी जगह न पहुंच पाएंगे, जहां हम कह सकें, बस यहीं तक! क्योंकि यह तो तभी हो सकता है, जब दूसरा कोई शुरू हो जाए वहां से। कोई भी बिगनिंग, कोई भी प्रारंभ किसी चीज का अंत होता है। और कोई भी अंत किसी चीज का प्रारंभ होता है। अगर कोई दूसरी चीज प्रारंभ हो रही हो, तो हम परमात्मा के अंत को पा सकते हैं। लेकिन कहीं कोई दूसरी चीज नहीं है जो प्रारंभ हो जाए। वैज्ञानिक भी बहुत तकलीफ में पड़े हैं; क्योंकि उनको भी बड़ी अड़चन है, यह विश्व कहीं न कहीं तो समाप्त होना चाहिए। परमात्मा उनके लिए सवाल नहीं है अभी। लेकिन विश्व तो कहीं न कहीं समाप्त होना चाहिए। यह यूनिवर्स कहीं तो पूरा होना चाहिए। यह कहां पूरा होगा? और अगर पूरा हो जाएगा, तो फिर क्या होगा? यह सवाल तत्काल खड़ा हो जाता है। जहां इसकी सीमा आएगी, वहां...तो वैज्ञानिक कहते हैं, दूसरा यूनिवर्स शुरू हो जाएगा। लेकिन उससे कोई हल नहीं होता। अब हम सारे यूनिवर्स जो शुरू हो सकते हैं, उनको इकट्ठा सोचें और फिर पूछे कि वे कहां खत्म होंगे? वे खत्म नहीं हो सकते। इस पुस्तक का श्रेय जाता है रामेन्द्र जी को जिन्होंने आर्थिक रूप से हमारी सहायता की, आप भी हमारी सहायता कर सकते हैं -देखें आखिरी पेजPage Navigation
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