Book Title: Tao Upnishad Part 01
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 191
________________ Download More Osho Books in Hindi Download Hindi PDF Books For Free पर इस आदमी का फिर कोई पता नहीं लग सका। चीन के सम्राट ने बड़ी खोज-बीन करवाई कि लाओत्से का कुछ पता लगे। क्योंकि वह जो दे गया है, हमें पता ही नहीं था। यह आदमी अस्सी साल तक वहां था, हमें पता ही नहीं था। क्योंकि हम आदमी को नहीं पहचानते, हम शब्दों को पहचानते हैं। फिर इसकी बहुत खोज-बीन की गई, लेकिन इस आदमी का कोई पता न लगा। शायद वह इसी सूचना के लिए है। क्योंकि ऐसे जो व्यक्ति हैं, वे कहते हैं जो, सिर्फ कहते ही नहीं, वैसा अपने जीवन, अपने व्यक्तित्व से भी इशारा कर देते हैं। इसका तिरोहित हो जाना इस बात की खबर है कि अस्मिता भी जहां से शून्य हो जाती है, वहां दिए गए वक्तव्य हैं। और वहां भी वह कह रहा है, प्रतिबिंब से ज्यादा नहीं। काश, हम पहचान पाएं कि क्या स्वप्न हैं, तो आसान हो जाता है पहचानना कि सत्य क्या है! काश, हम पहचान पाएं कि क्या प्रतिबिंब है, तो आसान हो जाता है पहचानना कि मूल क्या है! लेकिन हम अगर प्रतिबिंब को ही सत्य समझें और स्वप्न को ही यथार्थ समझें, तो फिर पहचानना बहुत मुश्किल हो जाता है। लेकिन हम तो ऐसे गहरे स्वप्न में खोए होते हैं, ऐसे गहरे प्रतिबिंबों में खोए होते हैं कि हमें तथ्यों का ही पता नहीं होता, सत्यों की तो बात बहुत दूर है। आज दोपहर एक मित्र आए थे। वह एक रूसी पद्धति है फिल्म डायरेक्शन की, उसके विशेषज्ञ हैं। ध्यान के संबंध में वह मुझ से बात करते थे। तो वह कहने लगे कि आप ध्यान के लिए जो कहते हैं, करीब-करीब हमारी जो पद्धति है फिल्म डायरेक्शन की, उसमें बड़ा तालमेल है। वह कहने लगे कि यह जो पद्धति है, रूसी पद्धति है, अभिनेताओं को तैयार करने की, वह ऐसी है कि अभिनेता की सेंसिटिविटी जो है, संवेदनशीलता जो है, वह इतनी प्रखर हो जानी चाहिए कि अगर अभिनेता कागज का फूल हाथ में रख कर कह रहा है कि यह गुलाब का फूल है, तो उसे सुगंध गुलाब की आनी चाहिए। अगर उसे सुगंध साथ में न आ जाए, अगर वह इतना तल्लीन न हो जाए कि इस कागज के फूल से उसे गुलाब की सुगंध न आने लगे, तो उसके चेहरे पर वे भाव नहीं आ सकते जो कि गुलाब के पास आने चाहिए थे। और अगर उसके चेहरे पर वे भाव लाने हैं जो कि गुलाब के पास आते हैं, तो उसमें इतनी संवेदना होनी चाहिए कि वह इस कागज के फुल को गुलाब का फुल जान ले, स्वीकार कर ले। यह गलाब का फल हो जाए, तो उसके नासापट कंपने लगें, उसकी आंखें गुलाब की सी लेने लगें, उसके गालों पर गुलाब का रंग दौड़ जाए! वह गुलाब जीवित हो जाए, तो ही वह एक्ट कर पाएगा, अभिनय कर पाएगा। तो मैंने उनसे कहा कि ध्यान इसके बिलकुल विपरीत है। यह जो रूसी पद्धति है, यह ध्यान की पद्धति नहीं है। अगर ठीक समझें, तो इसकी जो प्रक्रिया और प्रशिक्षण है, वह ट्रेनिंग फॉर इमेजिनेशन है, कल्पना की प्रशिक्षा है। अगर एक व्यक्ति अपनी कल्पना को इतना प्रगाढ़ कर ले कि कागज का फूल उसे गुलाब का असली फूल मालूम होने लगे, तो भी गुलाब का फूल नहीं हो जाता वहां, कागज का ही फूल रहता है। पर इसे कैसे मालूम होता है? यह इतना प्रोजेक्ट करता है, यह अपने मन के गुलाब के फूल को इस कागज के फूल पर ऐसा आरोपित करता है कि कागज का फूल तो विदा हो जाता है और कल्पना का स्वप्न-फूल प्रकट हो जाता है। उससे ही इसे सुगंध आ सकती है, कागज के फूल से तो आ नहीं सकती। इसकी कल्पना इतनी स्थापित हो जाए इस फूल में कि यह गुलाब का फूल बन जाए! मगर यह इमेजिनेशन है, मेडिटेशन नहीं है। यह कल्पना है, ध्यान नहीं है। ध्यान का तो अर्थ यह है कि प्रक्षेपण बिलकुल न हो। अगर यह कागज का फूल है, तो जिस कागज का फूल है, उसकी ही गंध आनी चाहिए। जिस कागज का फूल, क्योंकि कागजों में गंध होती है। अगर आप रूसी कागज की किताब देखें, तो आपको गंध अलग मिलेगी। क्योंकि रूस का वृक्ष और चीड़, जिनसे वह कागज बनता है, अलग हैं। अगर आप जापानी किताब देखें, उसमें गंध अलग होती है। मैं तो किताबों को देखते-देखते ऐसा हैरान हुआ कि अगर आंख बंद करके मेरी नाक के पास किताब लाई जाए, तो मैं कह सकता हं किस देश की है। उनकी गंध अलग है। क्योंकि हर मुल्क की लकड़ी की गंध अलग है, जिससे वे बनते हैं कागज, वे सब के भिन्न तो कागज का फूल किस कागज का बना है, इसकी गंध अगर आ जाए, तो मैं कहंगा वह आदमी ध्यान में है। तथ्य को वैसा ही जान लेना जैसा वह है, उसमें कुछ अपनी तरफ से न जोड़ना। लेकिन हम सब जोड़ते हैं। यह कोई अभिनेता ही जोड़ता है, ऐसा नहीं। हम सब जोड़ते हैं। हम सब वह देखते हैं, जो नहीं है। हम सब कागज के फूलों में गुलाब के फूल देखने में कुशल हैं-हम सब! जब कोई व्यक्ति किसी के प्रेम में पड़ जाता है, तो जो देखता है, वह है नहीं कहीं। जब कोई व्यक्ति किसी की घृणा में पड़ जाता है, तो जो वह देखता है, वह है नहीं कहीं। और तटस्थ तो हममें से कोई कभी होता नहीं। कुछ न कुछ में हम पड़े होते हैं, या तो प्रेम में, या घृणा में। या तो इधर, या उधर। हम कोई पक्ष लिए होते हैं। इसीलिए तो यह दुर्घटना घटती है कि जितने बड़े प्रेम से विवाह हो, उतनी ही जल्दी असफल हो जाता है। उसका कारण है। क्योंकि इतना बड़ा गुलाब का फूल देखा जाता है, फिर वह पाया नहीं जाता। भारतीय विवाह कभी असफल नहीं हो सकता, क्योंकि हम कोई कल्पना ही नहीं करते! हम कोई प्रेम ही नहीं करते! हम तो कागज के फूल से ही शुरू करते हैं। अब इससे ज्यादा और क्या होगा? इससे बदतर क्या होने वाला है? इससे बदतर कुछ हो नहीं सकता। इस पुस्तक का श्रेय जाता है रामेन्द्र जी को जिन्होंने आर्थिक रूप से हमारी सहायता की, आप भी हमारी सहायता कर सकते हैं -देखें आखिरी पेज

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