Book Title: Tao Upnishad Part 01
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 203
________________ Download More Osho Books in Hindi Download Hindi PDF Books For Free चेतना की धारा मुक्त होगी। शृंखला एक है। इकाई नहीं है, प्रवाह है। और अब जब कि वैज्ञानिक पदार्थ के जगत में भी इस सत्य के करीब पहुंच रहे हैं। क्योंकि वे कहते हैं, अब एटम कहना ठीक नहीं, ईवेंट कहना ठीक है। अब! अब यह कहना कि अणु है, गलत है। घटना, अण नहीं। और अब यह कहना कि वस्तु है, ठीक नहीं है-वस्तु-प्रवाह, बहाव, क्वांटम! लाओत्से कहता है, शून्य हो जाओ। तो जैसे ही शून्य होने की घटना घटेगी, वैसे ही घड़ा व्यर्थ हो जाएगा। फिर भी घड़ा थोड़े दिन जी सकता है, क्योंकि घड़े के अपने नियम हैं। आप एक घर में घड़ा ले आए, भरने लाए थे, लेकिन घर लाते-लाते आप बदल गए और अब आप नहीं भरना चाहते। तो आपके नहीं भरने भर से घड़ा नहीं फूट जाएगा। घड़े का अपना अस्तित्व है। घड़े को आप रख दें, खाली वह रखा रहेगा, रखा रहेगा, जीर्ण-शीर्ण होगा, टूटेगा। दस वर्ष लगेंगे, गिरेगा। जिस दिन आपने तय किया कि अब घड़े में कुछ नहीं भरना है, एक बात पक्की हो गई कि अब दुबारा आप घड़ा खरीद कर न लाएंगे। लेकिन यह घड़ा जो आप खरीद कर ले आए हैं, यह घड़ा आपके निर्वासना होने से ही नहीं टूट जाएगा। इसकी अपनी धारा रहेगी; इसका मोमेंटम अपना है। इसलिए बुद्ध को ज्ञान हुआ चालीस वर्ष की उम्र में, मरे तो वे अस्सी वर्ष की उम्र में। चालीस साल घड़ा तो था। महावीर को ज्ञान हुआ कोई बयालीस साल की उम्र में, मरे तो वे भी कोई चालीस साल बाद। तो चालीस साल तक घड़ा तो था। लेकिन अब घड़ा गैरभरा था। और अब सिर्फ प्रतीक्षा थी कि घड़ा अपने ही नियम से बिखर जाए, टूट जाए। कोई पूछ सकता है, हम घड़े को फोड़ तो सकते हैं! जब भरना ही नहीं है, तो फोड़ कर फेंक दें। कोई पूछ सकता है। और ठीक सवाल है कि एक घड़े को मैं खरीद कर लाया; अब भरना ही नहीं है, तो फोड़ कर फेंक दूं। तो बुद्ध या महावीर फिर चालीस साल क्यों जीते हैं? जब कि शून्य हो गया सब, अब कुछ वासना न रही, अब ये चालीस साल क्यों जीते हैं? अगर हम बुद्ध और महावीर से पूछे, तो वे कहेंगे कि फोड़ना भी एक वासना है। इतनी भी वासना न रही कि अब घड़े को भी फोड़ दें। अब जो हो रहा है, होगा। वह भी वासना है, क्योंकि कुछ करना पड़ेगा न। घड़े को फोड़ने के लिए कुछ करना पड़ेगा। वह करना भी, घड़े के प्रति अभी किसी तरह का लगाव बाकी रह गया है, इसकी खबर है। अभी घड़े से संबंध जारी है। यू आर इन रिलेशनशिप! अभी तुम घड़े को फोड़ते हो; अभी तुम घड़े को मानते हो। अभी घड़े से कोई संबंध, लेन-देन जारी है। नहीं, तो बुद्ध या महावीर कहते हैं कि ठीक है, हम खाली हो गए, अब घड़ा आयु-कर्म से, जो उसकी आयु है, जैसा हमने मांगा था पिछले जन्म में कि ऐसा घड़ा मिल जाए कि अस्सी साल रहे। बाजार खरीदने गए थे, कुम्हार से कहा था, ऐसा घड़ा दो कि दस साल चल जाए। चुकाए दाम, दस साल चलने वाला घड़ा ले आए। लेकिन पांच साल में ज्ञान हुआ और लगा कि कुछ नहीं भरना है। पर यह घड़े का अभी आयु-कर्म पांच साल का शेष है। हमने ही चुकाया था उसके लिए। इसको फोड़ेंगे भी नहीं। इसको चलने देंगे। इससे कोई दुश्मनी भी नहीं है। यह जब गिर जाएगा अपने आप, तो गिर जाएगा। इसको बचाने की भी कोई चेष्टा नहीं होगी। इसलिए बुद्ध को दिया गया है भोजन, वह विषाक्त है, वे चुपचाप कर गए। मुंह में कड़वा मालूम पड़ा, जहर था बिलकुल। पीछे लोगों ने कहा कि आपने कैसा पागलपन किया! आप जैसा बुद्धिमान, आप जैसा सजग पुरुष, कि जो रात सोते में भी जागता है, उसे पता न पड़ा हो जहर पीते वक्त, यह हम नहीं मान सकते हैं। बुद्ध ने कहा, पूरा पता पड़ रहा था। पहला कौर मुंह में रखा था, तभी जाहिर हो गया था। विषाक्त था, जहर था। तो थूक क्यों न दिया? मना क्यों न किया? और कौर क्यों ले लिए? बुद्ध ने कहा, वह जिसने खाना बनाया था, उसे पीड़ा होती। उसे अकारण पीड़ा होती; उसे अकारण दुख होता। वह बहुत दीन और गरीब था। उसकी हंडी में सब्जी भी इतनी ही थी, मेरे लायक। और वह इतना आनंदित था कि उसके आनंद को विषाक्त करने का कोई भी तो कारण नहीं था। पर लोगों ने कहा, आप यह क्या कह रहे हैं! आपकी मृत्यु घटित हो सकती है। तो बुद्ध ने कहा, मैं तो उसी दिन मर गया अपनी तरफ से, जिस दिन वासना क्षीण हुई, जिस दिन तृष्णा समाप्त हुई। आयु-कर्म है। वह घड़ा जब तक चल जाए! तो अगर इस घर में रखे घड़े को कोई आकर डंडे से फोड़ता होगा, तो भी नहीं रोकेगा। फोड़ने भी नहीं जाएगा; इसे कोई डंडे से फोड़ता होगा, तो भी नहीं रोकेगा। पर यह आखिरी है, क्योंकि अब दुबारा घड़ा खरीदने इस तरह की चेतना नहीं जाती। दुबारा उसका जन्म नहीं है। जन्म-मरण से मुक्ति का इतना ही अर्थ है कि जिसने शून्य होने का तय कर लिया, अब उसे पुनः घड़ों को खरीदने का प्रयोजन नहीं रह गया है। एक सवाल और ले लें। कोई पूछता है, मन ही एक बाधा है, उसके कारण ही स्वयं का साक्षात्कार नहीं हो पाता। इस मन को कैसे खाली किया जाए? इस पुस्तक का श्रेय जाता है रामेन्द्र जी को जिन्होंने आर्थिक रूप से हमारी सहायता की, आप भी हमारी सहायता कर सकते हैं -देखें आखिरी पेज

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